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________________ ६. नय की स्थापना १७७ ४. वचन कैसा होना चाहिये हित के इस मार्ग मे आपका हर वचन हित और मित व मिष्ट होना चाहिये । मिष्ट तो उसे बनाया जा सकता है सरलता व प्रेम को हृदय में रखकर बोलने के द्वारा, और हित बनाया जा सकता है उसे सापेक्ष बनाकर | प्रमाण के साथ वचन की सापेक्षता दर्शा दी गई । अब नय के साथ सापेक्षता सुनिये । नय के साथ सापेक्षता के अन्तर्गत आता है, दो विरोधी अगों का कथन भले एक दिन के वक्तव्य के सम्पूर्ण अग न कहे जा सके, किन्तु एक विषय के दो अंग कहे जाने सम्भव है । फिर भी मुख्य गौण व्यवस्था वश, उस विषय के दो विरोधी अगो मे से मुख्य अग पर अधिक जोर देकर उसकी ही व्याख्या की जाना न्याय संगत है । परन्तु ऐसा करते हुये भी यदि यह विवेक रख लिया जाये, कि उस दिन का वक्तव्य समाप्त होने के पश्चात् ५ मिनट के लिये यया योग्य रीति से उस विरोधी अंग की कार्यकारिता भी दर्शा दे, तो वह सर्वं आपका कथन नय सापेक्ष हो जायेगा जैसे कि निम्न दृष्टान्त से स्पष्ट होता है । कल्पना करे कि मुझे जीव के चारित्र अग का कथन करना अभीष्ट है | चारित्र के दो विरोधी भाग है । राग व बीतरागता । जहा राग होता है वहां वीतरागता नही, और जहा वीतरागता होती वहां राग नही । वीतरागता कैसे प्राप्त की जाये यह प्रकरण है । सो स्पष्ट है कि मैं जोर देकर यह सिद्ध करने का प्रयत्न करूगा कि राग द्वारा वीतरागता की प्राप्ति असम्भव है । क्योंकि विष पान से अमृतत्व मिलना असम्भव है । धन्टे भर बोलने का समय है । सो मुझे चाहिये कि ५५ मिनट तो उसी बात पर जोर देकर कहूँ, कि राग के द्वारा वीतरागता तीन काल में प्राप्त हो नही सकती, अतः वीतरागता में स्थिति पा । राग त्याग कर
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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