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________________ ८.सप्त भंगी .. १६३ ६ . सप्त भंगी के कारण प्रयोजनादि सिद्धांत कुछ अटपटा सा लगता है, पर वास्तव में ऐसा नहीं है । किसी को स्वर्ण की पहिचान बताते समय 'यह स्वर्ण हैं इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि 'इस ही के जैसा पीतल होता है पर यह पीतल नही है' ऐसा कहना भी आवश्यक है । यद्यपि जानकार व्यक्तियो को तो बताने के लिये ऐसा कहना नहीं पड़ता पर अनजान को बताने के लिये अवश्य ऐसा कहना पड़ता है, अन्यथा भय है कि कही वह भूल कर लुटे न आये । यही है अस्ति ओर नास्ति भंगों का लौकिक प्रयोग इन्ही दोनों के उपरोक्त रीतयः सात भंग बन जाते है जो भिन्न भिन्न अवसरो पर कथन क्रम में अवश्य आते हैं, विशेषतयः उस समय जब कि अनजान व्यक्ति को किसी वस्तु का परिचय देना अभीष्ट हो। इसलिये यह सिद्धात अध्यात्मिक दिशा मे अत्यन्त उपयोगी है । यद्यपि अस्ति और नास्ति मे परस्पर विरोध है, पर वस्तुत. ऐसा नही है । विरोध अवश्य हो जाता यदि जिस धर्म को अस्ति कहा जा रहा है उस ही धर्म को नास्ति कहा जाता, परन्तु उससे विरोधी धर्म को नास्ति कहने में विरोध आना असम्भव है । जैसे कि, “अग्नि उष्ण ही है और उष्ण नही ही है" ऐसा कहना तो विरोध को प्राप्त हो जायेगा, परन्तु, "अग्नि ऊष्ण ही है शीतल नहीं ही है" ऐसा कहना विरोध को प्राप्त नहीं हो सकता बल्कि ज्ञान की दृढ़ता के अर्थ सिद्ध होगा । यद्यपि अवक्तव्य कहने से 'वचन द्वारा बताना असम्भव है" ऐसा . घोषित होता है परन्तु ऐसा इस सिद्धांत में से ग्रहणहोना सम्भव नही है क्योंकि साथ मे रहने वाले अस्ति अवक्तव्य व नास्ति अवक्तव्य वाले भंग उसको किसी प्रकार वक्तव्य बना देते हैं। इस प्रकार वक्तव्य भी है और अवक्तव्य भी है ऐसा प्रदर्शन सातवे भंग से हो जाता है।
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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