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________________ ८ सप्त भगी ५. अवक्तव्य भग अभेद है और गुण पर्यायादि विशेष भाव देखने पर वह भेद रूप है । इसलिये वह भेदाभेदात्मक है। स्व क्षेत्र में सामान्य भाव को देखने पर वह अखड है और उसी के विशेष प्रदेश देखने पर वह खड रूप है। इसलिये वह खडिताखडित है । स्वकाल मे सामान्य भाव को देखने पर वह नित्य है और उसी के बिशेष काल या पर्यायो को देखने पर वह अनित्य है । इसलिये वह नित्यानित्य है। स्वभाव मे सामान्य भाव को देखने पर वह स्वलक्षण भूत एक स्वभावी है और उसी के विशेष गुण देखने पर वह अनेक स्वभावी है । इसलिये वह एकानेक स्वभावी है । इस प्रकार वस्तु मे अस्ति-नास्ति, भेद-अभेद, खंड-अखड, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि अनेकों विरोधी धर्म एक ही स्थान में व एक ही काल मे देखे जा सकते है। इन सब विरोधी धर्मों का प्रतिनिधित्व एक अस्ति-नास्ति कररहा है । वक्तव्य भंग के दो भेदो (अस्ति व नस्ति) का कथन कर दिया ५. अवक्तव्य गया अब दूसरे अवक्तव्य भंग को भी बताता हूँ । वस्तु भंग मे दो प्रकार से अवक्तव्यता देखी जा सकती है-एक तो उसके एक रस रूप अखड स्वाद की तरफ से, और दूसरे कथन क्रम की असमर्थता के कारण से । इन दोनो मे पहिला भाव अर्थात वस्तु का अखड स्वरूप क्योकि अनेकान्तात्मक है, इसलिये जाना तो जा सकता है पर कहा नहीं जा सकता, जैसे जीरे के पानी का अखड स्वाद । दूसरी अवक्तव्यता कथन क्रम की असमर्थता के कारण से है । अस्ति नास्ति भगो का वर्णन करते हुए वस्तु मे अस्तित्व और नास्तित्व नाम के दो विरोधी धर्मों की स्थापना कर दी गई। ये दोनों धर्म वस्तु मे युगपत पाये जाते है, परन्तु युगपत कहे नही जा सकते । क्रम पूर्वक ही कहे जा सकते है, परन्तु वस्तु मे आगे पीछे क्रम रूप नही है । वस्तु के सम्बन्ध मे न उसे केवल अस्ति कहने से काम चलता है । और न केवल नास्ति । ऐसा कोई शब्द नही जो अकेला दो विरोधी धर्मों को व्यक्त कर सके, इसलिये कोई भी शब्द पूर्णरूपेण वस्तु स्वरूप
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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