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________________ सप्त भगी १५६ ६ सात भगो की उत्पत्ति का प्रतिपादन करने में समर्थ नही है । इसी लिये वह अवक्तव्य है, या यो कह लीजिये कि उसमे अवक्तव्यता नाम का धर्म है । ये तीनो अस्ति नास्ति व अवक्तव्य ( अनुभवनीय) अग वस्तु मे ६ सात भगो युगपत पाये जाते है । यद्यपि वस्तु का स्वभाव तो इन की उत्पत्ति तीनो अगो मे समाप्त हो जाता है परन्तु उसका ज्ञान कराने मे प्रवृत्त हुए वचन क्रम मे इन तीनों के ही पूर्वोक्त सात भग बन जाते है | वह कैसे सो ही दर्शाने मे आता है । कल्पना करो किसी ऐसे विषय की (जैसे आत्मा ) जो अतीन्द्रिय है, जिसका या जिसके किसी भी कार्य का साक्षात्कार इन्द्रियों द्वारा कराया जाना असम्भव है । उसके सम्बन्ध -- मे कोई ज्ञानी वक्ता व्याख्या करने लगता है, और विधि निषेध रूप से उसके वक्तव्य अगों की व्याख्या करते हुए उसे महीनों या सालो बीत जाते है । इस अन्तराल मे अनेको पुराने श्रोता किसी लौकिक कार्य वश, या निराशा वश, या प्रमाद वश या व्याकुलता वश व्याख्या को पूरी सुने बिना बीच मे ही चले जाते है । और अनकों नये नये श्रोता बीच बीच मे आकर उसे सुनने लगते है । इन सब श्रोताओं को उनके द्वारा सुने हुए अगों की अपेक्षा यदि श्रेणियों में विभाजित करे तो वे सात श्रेणी ही वनेगी, छ या आठ नही । पहिली श्रेणी मे वे श्रोता आयेगे जिन्हों ने केवल अस्ति अगं ही सुना है, नास्ति व अवक्तव्य अग नही । दूसरी श्रेणी वालो ने केवल नास्ति अग सुना है शेष दो अंग नही । तीसरी श्रेणी वालो ने "अवक्तव्य है, केवल अनुभव गोचर है" इस प्रकार की ही बात सुन ली है, शेष दो नही । यह तीन तो एक सयोगी श्रेणिया होती हैं ।... तीन सियोगी श्रेणिया बनती है पहिली वह जिसने अस्ति व नास्ति अंग सुने हैं और अवक्तव्य अंग से सर्वथा अनभिज्ञ रही है । 1
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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