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________________ ८. सप्त भंगी १५४ ४. अस्ति नास्ति भग स्वरूप की अपेक्षा भी बिना कहे भी एक की दूसरे मे नास्ति का ग्रहण हो जाता है, परन्तु जीव व शरीर या खोटे स्वर्ण मे रहने वाला स्वर्ण व ताम्बा, ऐसे जो क्षेत्र से अपृथक पदार्थ है, उनमे बिना बताये किसी अनिष्णात व्यक्ति को, उनकी एक दूसरे में नास्ति का भान होना असम्भव है । इसी प्रकार घट व पट ये दोनों तो भाव या भिन्न है क्षेत्र की अपेक्षा भी पृथक पृथक है ? कहे भी पृथकता का ज्ञान हो जाता है, परन्तु स्वर्ण व पीतल या ऐसे ही अन्य पदार्थ जो स्वरूप की अपेक्षा समान दिखते है, उनमे बिना बताये किसी अनिष्णात व्यक्ति को स्वरूप की पृथकता का ज्ञान कैसे हो सकता है । स्वर्ण के पीतादि गुणों का परिचय पा लेने पर भी वह पीतल मे स्वर्ण के भ्रम को कैसे दूर कर सकता है, क्योकि पीतल भी स्वर्ण वत् पीला है । अतः इन मे तो बिना अत एक ही जाति के अनेक गुणों मे तथा मिश्रित पदार्थों के भिन्न भिन्न गुणो मे परस्पर व्यतिरेक बताये बिना विवक्षित पदार्थ का अविवक्षित पदार्थ से पृथक्करण करना दुस्साध्य है । ऐसा न होने के कारण ही अनभिज्ञ व्यक्तियो के द्वारा पीतल व स्वर्ण मे तथा शुद्ध व अशुद्ध स्वर्ण मे भेद देखना अत्यन्त कठिन है । अत किसी भी पदार्थ की स्पष्ट सत्ता का भाव तभी सम्भव है, जबकि उससे उपरोक्त प्रकार अस्तित्व व नास्तित्व दोनो धर्म स्वीकार किये जाये । 4 ये अस्तित्व व नास्तित्व दो धर्म ही मूल है क्योंकि अगले पांच का आधार यही है तथा यही वक्तव्य भी हैं क्योंकि स्व व पर की अपेक्षा से विकल्पों को ग्रहण करने वाले है । इन दोनों धर्मो का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जिस प्रकार स्व पर चतुष्टय पर लागू करके परस्पर विरोधी अस्ति व नास्ति स्वभाव वाली वस्तु सिद्ध होती है, उसी प्रकार अपने ही अन्दर मे रहने वाले सामान्य व विशेष इन दोनो अगों में भी परस्पर विरोधी धर्म वाली वस्तु देखी जा सकती है । स्व द्रव्य का सामान्य भाव देखने पर वह
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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