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________________ ८ सप्त भगी १५३ ४ अस्ति नास्ति भग __ इस सर्व कथन पर से यह तात्पर्य निकला कि वस्तु मे दो विरोधी धर्म विद्यमान है-अस्तित्व धर्म व नास्तित्व धर्म । अर्थात वस्तु सर्वथा सत्ता स्वरूप ही हो ऐसा नहीं है वह किसी अपेक्षा असत् भी है। यहां यह शंका करनी योग्य नहीं कि वस्तु को असत् मानने पर तो उसके अभाव का प्रसग होगा, अथवा एक ही स्थान पर, विरोध को प्राप्त ये अस्तित्वं व नास्तित्व दो धर्म परस्पर मे लड़कर एक दूसरे का विनाश कर देगे, और वस्तु शून्य मात्रा बनकर रह जायेगी। क्योकि यहां जिन विरोधी धर्मों की स्थापना की गई है वह दो भिन्न भिन्न अपेक्षाओं से की गई है, एक ही अपेक्षा से नही । अर्थात अस्तित्व तो स्व चतुष्टय की अपेक्षा । यदि अस्तित्व व नास्तित्व दोनो ही स्व चतुष्टय की या पर चतुष्टय की अपेक्षा कहे गये होते तो अवश्य दोनों में झगडा हो जाता । दृष्टि भेद से दोनो धर्म पढे जा सकते है, परन्तु स्थूल वुद्धि से नहीं । उपरोक्त सिद्धान्त के आश्रय पर जब हम यह कहने जाते है कि घट तो 'घट' ही है 'पट' नही, या घट स्व चतुष्टय की अपेक्षा ही अस्तित्व रूप है, परन्तु पट की अपेक्षा तो वह नास्तित्व रूप ही है, तब स्वत ही ऐसा सा लगने लगता है कि घट का अस्तित्व दर्शाना मात्र ही पर्याप्त था, पट का नास्तित्व कहने की क्या आवश्यकता ? क्योकि घट का अस्तित्व ही स्वय पट के नास्तित्व स्वरूप है । 'यहा प्रकाश है' ऐसा कहने मात्र से ही उस स्थल पर अन्धकार का अभाव सिद्ध हो जाता है, तब उसे अर्थात नास्तित्व को भी पृथक से कहना वाक् गौरव के अतिरिक्त और क्या है ? सो ऐसी आशका करनी योग्य नहीं, क्योंकि भले ही साधारण तथा क्षेत्र व भाव की अपेक्षा पृथक पृथक विषयों मे उसकी कोई आवश्यकता न पड़ती हो. परन्तु विशेष तथा क्षेत्र व भाव की अपेक्षा एक या समान दीखने वाले अपृथक या पृथक पृथक विषयों में उसकी आवश्यकता अवश्य पड़ती है। जैसे कि घट व पट आदि, क्षेत्र की अपेक्षा पृथक पृथक पदार्थों मे
SR No.009942
Book TitleNay Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherPremkumari Smarak Jain Granthmala
Publication Year1972
Total Pages806
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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