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________________ ५६ मेरी जीवन गाथा दी । गुरुकुल संस्था उत्तम है परन्तु लोगोंकी दृष्टि उस ओर नहीं । उसका स्वाद नहीं, जिन्हें स्वाद है उनके पास द्रव्य नहीं, जिनके पास द्रव्य है उनके परिणाम नहीं होते । संसारी जीव निरन्तर परको अपना मानता है । इसी कारण वह संसारमे भ्रमता है । हमारे मनमे यह विचार आया कि 'स्पष्ट और सरल व्यवहार करो। परको पराधीन वनाना महती अज्ञानता है । आत्मीय कलुषताके विना परकी समालोचना नहीं होती ।' 'अन्तर वृत्ति निर्मल नहीं । तत्वज्ञानकी रुचि जैसी चाहिये वह नहीं । खेद इस बातका है कि हम स्वयं आत्मपरिणामों के परिणमन पर ध्यान नहीं देते । स्वकीय श्रात्मद्रव्यका कल्याण करना मुख्य है परन्तु उस ओर लक्ष्य नहीं है। आत्मन् ! तँ परपदार्थोंमे वव तक उलझा रहेगा ?” खतौली फाल्गुन वदी ६ सं० २००५ को मेरठसे चलकर शिवाया पर निवास किया। यहाँ पर जो बंगला था वह ईसाईका था परन्तु उसमे जो रहनेवाला था वह उत्तम विचारका था, जातिका वैश्य था, गांधीजीके आश्रयमें १३ वर्ष रहा था, मुफ्त औषध बाँटता था, योग्य था । उसने यह नियम लिया कि तमाखु न पीयेंगे तथा जहाँ तक बनेगा मनुष्यता सम्पादन करनेकी चेष्टा करेंगे। चेष्टा ही नहीं मनुष्य बनकर ही रहेंगे । बहुत विनयसे १ मील पहुँचा गया। शिवायासे चलकर ढौराला आया । यहाँ पर भोजन कर सामायिक क्रिया की और फिर चलकर सायंकाल सकौती पहुँच गये । यहाँ पर ठहनेके लिये पवित्र स्थान मिला। रात्रिको विचार आया कि 'परके सम्बन्धसे जीव कभी भी सुखी नहीं हो सकता,
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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