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________________ मेरठ विलीन हो जाती है। पञ्चेन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका ज्ञान होना अन्य बात है और रुचिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए जानना अन्य बात है। दोनोंमें महान् अन्तर है। प्रमाद पूर्वक जो हिंसा होती है आन्तरङ्गिक कलुषताके निकल जाने पर वह भी नहीं होती। प्रयत्न पूर्वक निष्प्रमाद रहने पर यदि किसी प्राणीका वध भी हो जावे तो वह हिंसा नहीं, क्योंकि अमृतचन्द्रदेवने कहा है-- युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न हि भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ।। अर्थात् जिसका आचरण युक्त-निष्प्रमाद है उसके रागादि जन्य आवेशके बिना यदि बाह्यमें कदाचित् प्राणोंका व्यपरोप भी होता है तो उससे हिंसा नहीं होती। अतः अन्तरनमें जिनका अभिप्राय निर्मल हो गया उन महापुरुष की प्रवृति अलौकिक हो जाती है। किसीके ये भाव बाहरसे आते नहीं किन्तु जिन आत्माओंके संसार बन्धनसे मुक्त होनेकी आकांक्षा हो जाती है उनके अनायांस ही आभ्यन्तरसे प्रकट हो जाते हैं। प्रत्येक प्राणीकी अहिंसारूप परिणति स्वभावतः विद्यमान रहती है, कहीं बाहरसे वह आती नहीं है। जैसे अग्निमे उष्णता किसीने लाकर नहीं दी है। वह तो उसका स्वभावसिद्ध गुण है परन्तु जिस प्रकार चन्द्रकान्तमणके संपर्कसे अग्निका उष्णता गुण दाह कार्यसे विमुख हो जाता है उसी प्रकार आत्माका अहिंसक गुण मोहके संपर्कसे स्वकार्यसे विमुख हो रहा है। हे आत्मन् ! अब इन पर पदार्थों के द्वारा अपनी प्रशंसा निन्दा आदिके जो भाव होते हैं उन्हे त्याग सुमार्ग पर आओ। यहाँ वाबू जुगलकिशोर जी मुख्त्यार तथा उनके साथ पं० दरवारीलालजी न्यायचार्य भी आये । यहाँ आहार आदिके समय लोगोंने सहारनपुर गुरुकुलके लिये यथाशक्य सहायता
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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