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________________ ४१० मेरी जीवन गाथा ___अर्थात् बन्ध, मोक्ष, इनके कारण, जीवकी बद्ध और मुक्त दशा तथा मुक्तिका प्रयोजन यह सब हे नाथ ! आपके ही संघटित होता है, क्योंकि आप स्वाद्वादसे पदार्थका निरूपण करते हैं, एकान्त दृष्टिसे आप पदार्थका उपदेश नहीं देते। ___इस तरह परपदार्थसे भिन्न आत्माकी जो परिणति है वही मोक्ष है। इस परिणतिके प्रकट होनेमें सर्वसे अधिक वाधक मोह कर्मका उदय है, इसलिये आचार्य महाराजने आज्ञा की है कि सर्व प्रथम मोह कर्मका क्षय कर तथा उसके बाद शेप तीन घातिया कोका क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करो। उसके बाद ही अन्य अघातिया कर्मोंका क्षय होनेसे मोक्ष प्राप्त हो सकेगा। मोहके निकल जाने तथा केवलज्ञानके हो जाने पर भी यद्यपि पचासी प्रकृतियोंका सद्भाव आगममे बताया है तथापि वह जली हुई रस्सीके समान निर्बल है ध्यान कृपाण पाणि गहि नाशी त्रेशठ प्रकृति अरी । शेष पचासी लाग रही हैं ज्यों जेवरी जरी ।। परन्तु इतना निर्वल नहीं समझ लेना कि कुछ कर ही नहीं सकती हैं। निर्वल होनेपर भी उनमे इतनी शक्ति है कि वे देशोन कोटि पूर्व तक इस आत्माको केवलज्ञान हो जानेपर भी मनुष्य शरीरमे रोके रहती हैं। फिर निर्वल कहनेका तात्पर्य यही है कि वे इस जीवको आगेके लिये बन्धन युक्त नहीं कर सकतीं। परम यथाख्यात चारित्रकी पूर्णता चौदहवें गुणस्थानमे होती है। अतः वहीं शुक्लध्यानके चतुर्थ पायेके प्रभावसे उपान्त्य तथा अन्तिम समयमे वहत्तर और तेरह प्रकृतियोंका क्षय कर यह जीव सदाके लिये मुक्त हो जाता है तथा ऊर्ध्वगमन स्वभावके कारण एक समयमे सिद्धालयमे पहुँच कर विराजमान हो जाता है। यही जनागमम मोक्षकी व्याख्या है।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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