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________________ पर्व प्रवचनावली ३६७ अजान भाव है अर्थात् मिथ्याज्ञान है। इसका मूल कारण मोहका उदय है । ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे ज्ञान तो होता है परन्तु विपर्यय होता है । जैसे शुक्तिकामे रजतका विभ्रम होता है । यद्यपि शुक्ति रजत नहीं हो गई तथापि दूरत्व एवं चाकचक्यादि कारणोंसे भ्रान्ति हो जाती है। यहाँ भ्रान्तिका कारण दूरत्वादि दोप है । जैसे कामला रोगी जब शन देखता है तब 'पीतः शङ्कः' ऐसी प्रतीति करता है। यद्यपि शङ्खमें पीतता नहीं, यह तो नेत्रमे कामला रोग होनेसे शङ्खमे पीतत्व भासमान है। यह पीतता कहाँसे आई | तव यही कहना पड़ेगा कि नेत्रमे जो कामला रोग है वही इस पीतत्वका कारण है। इसी प्रकार आत्मामे जो रागादि होते हैं उनका मूल कारण मोहनीय कर्म है। उसके दो भेद हैं-१ दर्शनमोह और २ चारित्रमोह । उनमे दर्शनमोहके उदयसे मिथ्यात्व और चारित्रमोहके उदयसे राग द्वेप होते हैं। उपयोग आत्माका ऐसा है कि उसके सामने जो आता है उसीका उसमे प्रतिभास होने लगता है। जैसे नेत्रके समक्ष जो पदार्थ आता है वह उसका ज्ञान करा देता है। यहाँतक तो कोई आपत्ति नहीं परन्तु जो पदार्थ ज्ञानमे आवे उसे आत्मीय मान लेना आपत्तिजनक है क्योंकि वह मिथ्या अभिप्राय है । जो पर वस्तुको निज मानता है, संसारमे लोग उसे ठग कहते हैं परन्तु यह चोट्टापन छूटना सहज नहीं। अच्छे अच्छे जीव परको निज मानते हैं और उन पदार्थोंकी रक्षा भी करते हैं किन्तु अभिप्रायमे यह है कि ये हमारे नहीं। इसीलिये उन्हे सम्यग्ज्ञानी कहते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव उन्हे निज मान अनन्त संसारके पात्र होते हैं अतः सिद्ध होता है कि यह मोह परिणति ही बन्धका कारण है। इससे छुटकारा चाहते हो तो प्रथम मोह परिणतिको दूर कर आत्मस्वरूपमें स्थित होनेका प्रयास करो। इसीसे आत्मशान्ति प्राप्त होगी। परमार्थसे आत्मशान्तिका उपाय यही है कि परसे सम्बन्ध छोडा जाय और
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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