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________________ मेरी जीवन गाथा स्वद्वारा अर्जित संसारके विध्वंसका कारण हो सकता है। जैसे शरीरमें यदि अन्न खाकर अजीर्ण हो गया है तो उसके दूर करनेका सर्वोत्तम उपाय यही है कि उदरसे पर द्रव्यका सम्बन्ध पृथक कर दिया जावे। उसकी प्रक्रिया यह है कि प्रथम तो नवीन भोजन त्यागो तथा उदरमे जो विकार है वह या तो काल पाकर स्वयमेव निर्गत हो जावेगा या शीघ्र ही पृथक् करना है तो वमन-विरेचन द्वारा निकाल दिया जावे । ऐसा करनेसे निरोगताका लाभ अनायास हो सकता है। मोक्षमार्गमे भी यही प्रक्रिया है। वल्कि जितने कार्य हैं उन सर्वकी यही पद्धति है। यदि हमे संसार वन्धनसे मुक्त होनेकी अभिलाषा है तो सबसे प्रथम हम कौन है ? क्या हमारा स्वरूप है । वर्तमान क्या है ? तथा संसार क्यों अनिष्ट है ? इन सब बातोका निर्णय करना आवश्यक है । जब तक उक्त वातोंका निर्णय न हो जावे तव तक उसके अभावका प्रयत्न हो ही नहीं सकता। आत्मा अहम्प्रत्ययवेद्य है । उसकी जो अवस्था हमें संसारी वना रही है उससे मुक्त होनेकी हमारी इच्छा है तब केवल इच्छा करनेसे मुक्ति के पात्र हम नहीं हो सक्ते । जैसे जल अग्निके निमित्तसे उप्ण होगया है। अब हम माला लेकर जपने लगें कि 'शीतस्पर्शवज्जलाय नमः' तो क्या इससे अनल्प काल में भी जल शीत हो जायगा ? नहीं. वह तो उप्ण स्पर्शके दूर करनेसे ही शीत होगा। इसी तरह हमारी आत्मामें जो रागादि विभाव परिणाम हैं उनके दूर करनेके अर्थ 'श्री वीतरागाय नमः' यह जाप असंख्य कल्प भी जपा जावे तो भी आत्मामें वीतरागता न आवेगो किन्तु रागादि निवृत्तिसे अनायास वीतरागता था जावेगी । वीतरागता नवीन पदार्थ नहीं, आत्माकी निर्मोह अवस्था ही वीतरागता है जो कि शक्तिकी अपेक्षा सदा विद्यमान रहती है। जिसके उदयसे परमें निजत्व बुद्धि होती है वही मोह है। परको निज मानना यह
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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