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________________ फिरोजाबादकी ओर २२३ क्षणभंगुर हैं और गुण नित्य हैं। यदि पर्यायोंसे भिन्न गुण न माना जावे तो एक पर्यायका भंग होनेपर जो दूसरी पर्याय देखी जाती है वह बिना उपादानके कहाँसे उत्पन्न होती ? अतः मानना पड़ेगा कि पर्यायका आधार कोई है । जो आधार है उसीका नाम तो गुण है और उसका जो विकार है वही पर्याय है। जैसे आम्र आरम्भमें हरित होता है । काल पाकर वही पीत हो जाता है। इससे यह सिद्धान्त निर्गत हुआ कि आम्रका रूप हरित अवस्थासे पीत अवस्थामे परिवर्तित हुआ इसीका नाम उत्पाद और व्यय है। सामान्य रूप गुण ध्रौव्यरूप है ही। इस तरह विवेक पूर्वक विकृति परिणतिको दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये । आज लोग धर्म धर्म चिल्लाते हैं पर धर्मके निकट नहीं पहुंच पाते । वह तो उसके ढाँचेमें ही धर्म बुद्धि कर प्रतारित हो रहे हैं। परमार्थसे धर्म वह वस्तु है जो आत्माको संसार बन्धनसे मुक्त कर देता है। उसके वाधक पाप और पुण्य हैं। सबसे महान् पाप मिथ्यात्व है। इसके उदय में जीव आपको नहीं जानता। पर पदार्थों में आत्मीयताकी कल्पना करता है। कल्पना ही नहीं उसके स्वत्वमे अपना स्वत्व मानता है। शरीर पुद्गल परमाणु पुञ्जका एक पुतला है। मिथ्यात्वके उदयमें यह जीव उसे ही आत्मा मान बैठता है और अहर्निश उसकी सेवामें व्यग्र रहता है। यदि कोई कहे भाई । शरीर तो अनित्य है इसके अथ इतने व्यग्र क्यों होते हो? कुछ परलोककी भी चिन्ता करो। तत्काल उत्तर मिलता है कि न तो शरीरातिरिक्त कोई आत्मा है और न परलोक है। यह तो लोगोंकी वञ्चना करनेके अर्थ एक जाल पण्डित महोदयों तथा ऋषिगणोंने बना रक्खा है ! कहा है यावजीवं सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः॥
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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