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________________ मेरी जीवन गाथा न जन्मन प्राड न च पञ्चतायाः परो विभिन्नेऽवयवे न चान्तः । विशन्न निर्यन च दृश्यतेऽस्माद्भिनो न देहादिह कश्चिदात्मा || २२४ चार्वाकका सिद्धान्त है कि पृथिवी जलादिका समुदाय ही एक आत्मा है । जैसे गेहूँ आदि सड़कर मादक शक्ति उत्पन्न कर देते हैं ऐसे ही पृथिव्यादि तत्र चेतन शक्ति उत्पन्न कर देते हैं । शरीरसे अतिरिक्त जीव पदार्थ न तो जन्मसे पहले और न मरणके पश्चात् किसी ने देखा है फिर उसके पीछे क्यों पड़ा जाय ? यहाँसे चल कर सिमरा तथा सिरसागंजमे खास मुकाम कर माघ शुक्ल ४ सं० २००७ को फिरोजाबाद पहुँच गये। यहाँ पर श्री आचार्य सूर्यसागरजी महाराजका दर्शन हुआ। आप बहुत ही शान्त तथा उपदेष्टा हैं । आपके प्रवचनसे हमको पूर्ण शान्ति हुई । आपका कहना है परसे सम्बन्ध त्यागो, परसे सम्बन्ध रखना ही संसार की जड़ है । जहाँ परसे सम्बन्ध किया वहाँ मोह हुआ और मोहके होते ही उसमें निजत्व की कल्पना हो जाती है। आपके उपदेशका आत्मा पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा किन्तु श्मशान वैराग्यवत् ही दशा रही। वहीं पर महाराजसे मोह करने लगे । केवल वचन की कुशलता और कायकी क्रियासे महाराजको यह प्रत्यय करा दिया कि हमने आपके उपदेश पर अमल किया। देखनेवाले दर्शक भी हमारी क्रियाको देख कर प्रसन्न हुए - शिष्य हो तो ऐसा हो । परन्तु यह सब नाटकका दृश्य था - अन्तरङ्गमे कुछ भी न था । कल्याणका मार्ग यह नहीं ऐसी चेष्टा केवल स्वात्मवञ्चनामे ही परिणत हो जाती हैं ।
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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