SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ - मेरी जीवन गाथा चेतना है और ज्ञानसे अतिरिक्तका भोक्ता अपनेको मानना यही कर्मफलचेतना है। ऐसा सिद्धान्त है कि यः परिणमति स कर्ता यः परिणमो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणति क्रिया सा त्रयमपि भिन्नं न वस्तुतया ॥ इसका तात्पर्य यह है कि श्रात्मा जो परिणाम स्वतन्त्र करता है वह परिणाम तो कर्म है और आत्मा उसका कर्ता है तथा जो परिणति होती है वही क्रिया है। ये तीनों परस्पर भिन्न नहीं। जिन्होंने आत्मतत्त्वकी ओर दृष्टि दी उन्होंने पर संयोगसे होनेवाले भावोंको नहीं अपनाया। यही बूटी संसार रोगको नष्ट करनेवाली है । बन्धावस्था दो पदार्थोंके संयोगसे होती है । इस अवस्थामें होनेवाला भाव संयोगज है। वे पदार्थ चाहे पुद्गल हो चाहे जीव और पुद्गल हो । जहाँ सजातीय २ पुद्गल होते हैं वहाँपर एक तरहका भी परिणाम होता है और मिश्न भी होता है । जैसे दाल और चांवलके संयोगसे खिचड़ी होती है। उसका स्वाद न चांवलका है और न दालका । एवं हल्दी चूनामे दोनोंका एक तृतीय रंग हो जाता है । यद्यपि चूना हल्दी पृथक पृथक हैं परन्तु लाल रंग दोनोंका है। जिस पदार्थमें चाहे वह चेतन हो चाहे अचेतन, जो गुण और पर्याय रहते हैं वे गुण और पर्याय उसीमें तन्यय हो के रहते हैं। इतना अन्तर है कि गुण अन्वयी रूपसे निरन्तर द्रव्यके साथ तादात्म्य रखता है और पर्याय क्रमवर्ती होनेके कारण व्यतिरेक रूपसे द्रव्यके साथ तादल्य रखता है। स्वामी कुन्दकुन्द महाराजने कहा है 'परिणमदि जेण दव्वं तत्कालं तम्मयं ति पएणत्तम् ।' जैसे आत्मामे चेतना गुण है और मति श्रुतादि उसकी पयाय हैं सो चेतना तो अन्वयी रूप है और पर्यायें क्रमवती हैं। पर्याय
SR No.009941
Book TitleMeri Jivan Gatha 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages536
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy