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________________ चाणक्यसूत्राणि विवरण- इन्द्रियासक्तकी कर्मशक्ति कुण्ठित हो जाती है। यह बात सूत्रके " भपि " शब्दसे कही गई है। इन्द्रियासक्तकी समस्त कर्मशक्ति उसकी इन्द्रियासक्तिमें ही क्लान्त समाप्त और गतार्थ होकर दूसरा कोई भी महत्वपूर्ण कर्म करनेके योग्य ही शेष नहीं रहती । असफलता हो इन्द्रियासतोंकी अमिट ललाटलिपि या कमरेखा बनजाती है। पाठान्तर- इन्द्रियवशवर्तिनो नास्ति कार्यावाप्तिः । इन्द्रियाधीनका कोई भी कार्य सिद्ध नहीं होता। पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, तथा मन प्रत्येक समय मज्ञानी मनुष्य के ज्ञान, संयम, विचार तथा शान्तिरूपी धनको चुरा चुरा कर उसे संसार. रूपी पण्यशालामें व्यर्थ व्यय कर डालना चाहते हैं। इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाले राजा या राज्यधिकारियों के इन्हें अपना ज्ञानधन चुरा लेने देने पर वे काम जिन्हें करना उनका कर्तव्य है निश्चित रूपमें फलहीन रहते हैं। कार्य तो संयतेन्द्रिय लोगोंके ही सफल होते हैं। जीयन्तां दुर्जया दहे रिपवश्चक्षुरादयः जितेषु ननु लोकायं तेषु कृत्स्नस्त्वया जितः परवानर्थसंसिद्धौ नीचवृत्तिरपत्रपः । अविधेयेन्द्रियः पुंसां गौरिवेति विधयताम् । भारवि तुम अपने ही देहमें रहनेवाले चक्षु आदि इन्द्रियरूपी घरेलू दुर्जय शत्रु. ओंको विजित बनाकर रखो । यदि तुम उन्हें जीतकर रखोगे तो निश्चय जानो कि तुम विश्वविजयी बन चुकोगे। अवशेन्द्रिय मानव स्वार्थसाध नमें पराधीन नीचवृत्ति निर्लज होकर पशुओंके समान दूसरोंकी अधीनतामें माजाता है। जिसकी अपनी इन्द्रियां तक अपने वशमें नहीं हैं, जो अपनी इन्द्रियों तकपर अपना शासन स्थापित करने में असफल हो रहा है, निश्चय है कि वह अपनी चतुरंग सेनाको भी कर्तव्यनिष्ठ न रखकर उसे भी अपनी इन्द्रियों के समान ही कर्तव्यभ्रष्ट बनाये रखेगा। उसके असंयत मनका
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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