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________________ व्यसनासक्ति से हानि ( व्यसनासक्ति से हानि ) न व्यसनपरस्य कार्यावाप्तिः ॥ ६९ ॥ - 67 1 व्यसनासक्त से सफल कर्म नहीं हो पाता विवरण - व्यसनासक्तका कर्म फलदायी नहीं होता । क्योंकि व्यसनासक्तका कर्म उत्साह, दृढता, संकल्प तथा आत्मविश्वास से हीन होता है इसलिये उसके किये कर्म निष्प्राण होते हैं । उसका मन व्यसनासक होने से सब समय कर्तव्यबुद्धिसे भ्रष्ट बनकर रहता है। राजाकी राजकार्यों में निष्ठा तब ही हो सकती है जब वह प्रजारंजनको अपनी तपश्रर्याके रूपमें स्वीकार करके तपस्वी जीवनको अपनाये । राजाके लिये राजधर्मपालन से भिन्न या महत्वसंपन्न दूसरा कोई भी कर्तव्य धर्म स्वभाव या प्रवृत्ति स्वीकरणीय नहीं होसकती । राजधर्मपालन ही राजाके मनुष्यदेहधारणकी सार्थकता है । व्यसनी राजा स्वयं तो नष्ट होता ही है अपने साथ राष्ट्रको भी नष्ट कर डालता है । व्यसनहीन धीर राजा या राज्याधिकारी ही बुद्धिमान् माने जाते और प्रशंसा पाते हैं। उनके ही काम सुनिश्चित कर्मफलवाल होते हैं । समय शक्ति या धनका गिरावट में उपयोग 'व्यसन' कहाता है । कामज तथा कोपज दोष व्यसन कहाते हैं। मानवधर्मशास्त्र में राजा के दस (१० ) कामज तथा आठ ( ८ : कोपज भेदसे १८ प्रकारके व्यसन गिनाये हैं । १- आखेट, २- जुमा ( शतरंज ताश, लाटरी, घुडदौड, सट्टे आदि), ३- सकलकार्य विनाशक दिवानिद्रा, ४- परनिन्दा, ५- व्यभिचार, ६- मद्यपानजनित पद, नृत्य, ८- गीत, ९- वादित्र, १० व्यर्थ भ्रमण ये दस कामज व्यसन हैं 9- किसीपर मिथ्या दोषारोपण, २- मिथ्याप्रतिष्ठा के दुरामइसे किसीकी सच्ची बात न मानना, ३- निरपराध से व्यक्तिगत द्वेष, ४- परश्रीकातरता ( दूसरोंके गुणका असहन ), ५- दूसरोंके गुणोंमें दोषोद्भावन, ६ - परधनापहरण तथा पराये धनका अप्रत्यावर्तन, ८- ताडनादि ये आठ प्रकार के कोपज व्यसन हैं 1 दुर्वचन, ६१ - 60 ܐ इन्द्रियवशवर्ती चतुरङ्गवानपि विनश्यति ॥ ७० ॥ इन्द्रियोंका आज्ञाकारी असंयतेन्द्रिय राजा समस्त प्रकारकी सेनाओंसे सुसज्जित होनेपर भी नष्ट होजाता है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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