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________________ आर्यअनार्योंकी तुलनात्मक आलोचना हो गई थी कि वह आत्मकल्याणको सुरक्षित रखने के लिये पर्याप्त मात्रामें समर्थ तथा जागरूक बन चुकी थी। 'प्रकृतिसम्पदा ह्यनायकमपि राज्यं नीयते ।' (चाणक्यसूत्र ) प्रजा यदि राज्य प्रबन्धसे परिचित हो जाय या बना दी गई हो तो किसी कारण राजाके न रहनेपर भी राष्ट्रव्यवस्था अक्षुण्ण रहती चली जाती है। प्रजाको सन्तुष्ट तथा सुशिक्षित करके प्रजाकी सदिच्छाभोंसे ही राज्यन्यवस्थाका संचालन करने का यह ढंग चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार तथा पौत्र अशोक तक सुरक्षित रहा । परन्तु साम्राज्य संचालकोंके भहिंसावादी बौद्ध धर्ममें दीक्षित हो जानेपर दण्डन्यवस्थाके ढीला पडनेपर ही साम्राज्य छिसमिन्न होगया । उस स्थिति को देखकर गीताके 'स्वधर्म निधनं श्रेयः पर धर्मो भयावहः।' इस मन्तब्यकी स्मृति बलात मा खसी होती है। राशो हि दुष्टनिग्रहः शिष्टपरिपालनं च धर्मः । न पुनः शिरोमुण्डनं जटाधारणादिकं वा । ( नीतिवाक्यामृतं ५-२) दुष्ट निग्रह तथा शिष्टपालन ही राजाभोंके धर्म हैं। सिर मुंडाना या जटा धारण करना आदि उनके धर्म नहीं हैं। व्रतचर्यादिकं धर्मो न भूपानां सुखावहः । तेषां धर्मः प्रदानेन प्रजासंरक्षणेन च । ( मागुरि ) व्रतचर्या भादि राजाभोंके लिये सुखकारक नहीं है । उनका धर्म तो प्रजाको अभयदान तथा उसकी रक्षा ही है। भारतीय आर्य साम्राज्य के ये तीनों लानुवंशिक सम्राट् इस भादर्शको सुरक्षित रखकर प्रजाकी सेवा करके न केवल मानवसमाजको कृतार्थ कर गये किन्तु स्वयं भी धन्य होकर गये । साम्राज्य स्थापनाका यही आयं मादर्श था। यह मादर्श भाजके पाश्चात्य साम्राज्यवादसे सर्वथा विपरीत प्रकारका है। यह कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि भारत भी कालकी कुटिलगतिसे इस मादशको राष्ट्रियरूपमें अपनाकर नहीं रख सका । वह फिर पहले के ही समान आदर्शहीनतामें जा दुबा।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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