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________________ ५९० चाणक्यसूत्राणि समझते थे कि मनुष्य हृदयपर विजय दिलानेवाला ब्रह्मास्त्र युक्ति ही है, बलात्कार नहीं । वे मनुष्यकी स्पष्ट ज्ञानशक्ति तथा तीक्ष्ण बुद्धिवृत्तिको दी ऐसा अव्यर्थं हथियार समझते थे जिससे बाह्य प्रतिकूल परिस्थितियों को पराभूत किया जा सकता है । वे अपनी स्पष्ट ज्ञानशक्ति तथा सुतीक्ष्ण बुद्धिवृत्तिको ही सदा काममें लाते थे । आर्य चाणक्य में इन अभूतपूर्व गुणोंने जैसा पूर्ण आत्मविकास पाया था संसारके इविद्वान में वैसा विकास पाने. वालोंका प्रायः अभाव पाया जाता है | चाणक्यने गुणजन्य आत्मविश्वास के कारण ही अपने तीनों महान् उद्देश्य पूरे किये थे । भारतमें जो राजनैतिक शक्तिका सूत्रपात हुआ वह चाणक्यको बुद्धिके ही कारण हुआ। उसी सू पातके कारण भारत अशोक के समय पहली बार संसारको सफलता साथ शान्तिप्रेम और भ्रातृभावका सन्देश सुनाने योग्य बना | हिन्दुसार तथा अशोक दोनों के यशकी पृष्ठभूमि भी आर्य चाणक्यकी प्रतिमा ही थी । इस दृष्टिसे चाणक्यको न केवल भारत के प्रत्युत संसारभरके इतिहासके अत्यन्त महत्वपूर्ण युगका प्रवर्तक कहा जा सकता है } चाणक्यने आदर्श राट्र, यादर्श राजचरित्र तथा अखण्ड राष्ट्रनिर्माण नामक अपने तीनों महान् उद्देश्योंको पूरा करनेके लिये भारत पर होनेवाले विदेशी आक्रमणको व्यर्थ करना श्राम्यन्तरिक देशद्रोहियोंको मिटाना तथा व्यक्ति गत स्वार्थद्दीन आदर्श समाजको संगठित करना आवश्यक समझा और अपने सफल प्रयोगों से भारतवासियों को इन सब बातोंकी व्यावहारिक शिक्षा दी ! यदि वे देशद्रोहियों को देशद्रोह करनेका अवसर देते रहते, देशको विदेशी आक्रमणोंकी संभावनाको न मिटा डालते, देश तथा उसके प्रत्येक ग्रामको विदेशियोंसे पृथक् पृथक् स्वतन्त्र रूप से लोहा लेनेके लिये प्रस्तुत न कर देते, देश में व्यक्तिगत स्वार्थभावनाको फूलने फलने देते तो देश से राष्ट्रसेवा नामका मानवधर्म पलवाया नहीं जा सकता था । राष्ट्रसेवामें ये तीनों कर्तव्य अत्याज्यरूप से राष्ट्रसेवायें सम्मिलित है । जिस राष्ट्रमें देशद्रोही लोग हैं जो राष्ट्र विदेशी आक्रमण या लूटको व्यर्थ नहीं बना सकता। जिस राष्ट्र के ग्राम शत्रुओं के मार्ग पग पगपप्रतिरोधके लिये सन्नद्ध नहीं होते, जिस राष्ट्रका मनुष्यसमाज अपने व्यक्तिगत स्वार्थीको समाजके सहसम स्वार्थमें विलीन
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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