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________________ आर्थिक समाजरचनाके दोष जैसे मनुष्यकी व्यक्तिगत कामासक्ति उसकी दृष्टिको अंधा बना देती और उसे इन्द्रियों के दास बनाकर छोडती है, इसी प्रकार राजाकी अजितेन्द्रियता राज्य में बाह्य शत्रुओं को आनेका निमन्त्रण देकर राजाको पराधीन बना देती है । अपनी इन्द्रियोंको वशमें न रखनेवाला राजा सागरपर्यन्त भूभागका अधिपति होता हुआ भी नष्ट हो जाता है । मन्त्रियों की अजितेन्द्रियता तथा अनुचित महत्वाकांक्षा भी राजशक्तिका प्रबल शत्रु होनेके साथ साथ देशपर विपत्ति आने का भी प्रबल कारण होता है । इसलिये चाणक्यने मन्त्रियों की योग्यता के लिये सद्वंश, विद्या, दूरदृष्टि, ज्ञान, साहसिकता, वाग्मिता, बुद्धि की प्रखरता, उत्साह, स्वाभिमान, चारित्रिक निर्मलता, आदर्शनिष्ठा, आत्मसंयम तत्परता तथा दढचित्तताको कसौटीके रूपमें बताया है । मन्त्री लोग इन्हीं गुणोंके आधारपर समाजको सच्ची व्यावहारिक आध्यात्मिकता तथा सुश्रृंखलाके बंधन में रख सकते हैं । इस आदर्शसे हीन मन्त्रियोंका देशद्रोही और राजद्रोही हो जाना अनिवार्य है । उस समयके देशका यह सौभाग्य था कि समुद्र से हिमालय तक सुवि स्तीर्ण भारतीय साम्राज्यकी उर्वर भूमिमें समाजकी संगठित शक्तिसे धनसंपत उत्पन्न करके देशमें सुखशान्तिको अविच्छिन्न गंगा बहानेका आचार्य चाणक्यका सुपना साकार हो गया था और उनके व्यावहारिक माध्यात्मके प्रचारके प्रभाव से देश में धर्मराज्य स्थापित हो गया था । चन्द्रगुप्त उसका पुत्र बिन्दुसार तथा पौत्र अशोक चाणक्यकल्पित धर्मराज्य के स्थापक होने ही के कारण संसारभरके सम्मुख न्यायनिष्ठ शान्तिप्रिय राजचरित्रका बादर्श रखने में समर्थ हुए थे । आर्थिक आधारोंपर समाजरचना के दोष आर्थिक आधारोंपर समाजका पुनर्निर्माण करना चाहनेवाले लोग संसार में अधिक संख्या में हैं । परन्तु ये लोग नहीं विचार पाते । आर्थिक आधारोंपर समाजका पुनर्निर्माण करनेसे देश में स्वार्थी प्रवृत्तियोंको अनिवार्य रूपसे बढावा मिलता है और अन्तमें अव्यवस्था और पापको फैलने से रोका ही ५८७
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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