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________________ ५२० আগাড়ি उसे पकडकर लाने वालों के लिये रोष और स्थिरता होती है वह धैर्य तथा अमर्षसे उत्तर देता है । निष्पाप मनुप्य इन लक्षणोंसे पहचाना जाता है। पाठान्तर- आकारसंवरणं अकरणावाचो राजपुरुषेभ्यो निर्त्य रक्षेत् । मसंगत पाठ है। (प्रजा तथा राष्ट्र के धन को चोरों तथा राज कर्मचारियों से बचाओ) चोरराजपुरुषेभ्यो वित्तं रक्षेत् ॥५५६॥ राजा लोग चोरों तथा राज्यपुरुषों (राजकर्मचारियों) से जनताका धन बचाते रहे । विवरण- चोर तथा राजकर्मचारी दोनों ही अर्थलोभी होते हैं । चोर जो काम चोरीसे करते हैं राजकर्मचारी वही काम अपने माखेटपर राज. शक्तिका अनुचित अवैध प्रभाव डाल कर करते हैं। मनोवृत्ति दोनों की एक सी है । दोनों अधिकारहीन अनुचित ढंगसे दूसरों के जीवन-साधन छीन लेना चाहते हैं। (प्रजासे न मिलनवाले राजा प्रजाके विनाशक ) दुर्दर्शना हि राजानः प्रजा नाशयन्ति ॥५५७॥ अपनी नीति-हीनतासे दुर्दर्शन अर्थात् प्रजाको कभी दर्शन न देने अर्थात् अपने कानोंसे प्रजाके सुखदुःख न सुननेवाले राजा लोग प्रजाका प्रेम पाने, उसका हित सोचने या शासनको लोक प्रिय बनाने में असमर्थ होकर प्रजाका विनाश करने वाले बन जाते हैं। विवरण- राजकर्मचारियों पर निर्भरशील होकर प्रजासे साक्षात् न मिलनेवाले राजा लोग स्वयं अवैध रूपसे राजभोग करने के कारण प्रजाकी कष्टगाधा न सुननेवाले अवैध रूपसे धनोपार्जन करने वाले राज्य कर्मचारि.
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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