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________________ आकारसंगोपन असंभव ५१९ आकार, संकेत, गति, चेष्टा, माषण तया नेत्रवक्त्र विकारोंसे भीवर छिपा मन कंचपात्रमें रखे पदार्थ के समान स्पष्ट दीख जाता है। ( आकारसंगोपन असंभव ) आकारसंवरणं देवानामशक्यम् ॥ ५५५।। अपनी मुखाकृतिपर अपने मनोभावोंको प्रकट न होने देना किसीके लिये भी शक्य नहीं है। विवरण- आकृतिकी लिपिके विशेषज्ञोंकी सूक्ष्मेक्षिकासे अपना साकार छिपा लेना शक्तिशालियोंके भी सामर्थ्य से बाहरकी बात है । दृष्टि-संचालन, असंगत वचन, भावावेश आदिके द्वारा मनोभाव पहचाने जा सकते हैं । भिन्नस्वरमुखवर्णः शंकितदृष्टिः समुत्पतिततेजाः । भवति हि पापं कृत्वा स्वकर्मसन्त्रासितः पुरुषः ।। आयाति स्खलितैः पादैर्मुखवैवर्ण्यसंयुतः । ललाटस्वेभाग्भूरि गद्गदं भाषते वचः ॥ अधो दृष्टिर्वदेत् कृत्वा पापं सभां नरः । तस्माद्यत्नात्परिशेयश्चितैरतैर्विचक्षणैः ॥ (पंचतंत्रसे) पाप कर्म करने के पश्चात् अपने कर्मसे संत्रासित मानवका स्वर बदल जाता, मुखका रंग फीका पड जाता, नेत्र भयभीत और तेज नष्ट हो जाता है। वह न्यायाधीशके सामने लाया जानेपर लडखडाते पैरोंसे माता है, मुखका रंग उडा हुमा होता है, मस्तकपर पसीना बार बार टपकता है और अस्पष्ट अधूरी बातें कहता है ! आकृतिसे घबडाहट टपकती है, दष्टि नीची रखता है । कुशल लोग इन लक्षणों से अपराधीको यत्नपूर्वक पहचानें । प्रसन्नवदनो हृष्टः स्पष्टवाक्यः सरोपटक । सभायां वक्ति सामर्ष सावष्टम्भो नरः शुचिः ॥ अपने चरित्र के साथ सत्यका सहारा रखनेवाला निष्पाप मनुष्य न्याया. लय के सामने प्रसन्नवदन हर्षित होकर स्पष्ट बातें कहता है, उसके नेत्रों में
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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