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________________ ५१४ বাথৰুমালঃ ( पाप पापीके ही मुखसे स्वीकार कराया जा सकता है ) आत्मनः पापमात्मैव प्रकाशयति ॥ ५५३ ॥ पापी अपने पापको स्वयं ही प्रकाशित कर देता है। विवरण- मनुष्य पाप करनेसे पहले अपने सत्यस्वरूप या सत्यनारायणको अस्वीकार कर चुकता है । वह अपने जीवन में सत्यनारायणको अस्वीकार कर चकने के अनन्तर पापाचरण करने पर उद्यत होता है। फिर वह पापको स्थल जगतकी दृष्टि से गुप्त रखकर समाज-व्यवस्थासे मिलनेवाले दण्डसे बचना चाहता और कभी-कभी बच भी जाता है। समाजव्यवस्थाकी ओर से मिलने वाले पापके दण्डसे बच जानेपर भी उसके पापका प्रत्यक्षदर्शी साक्षी उसका जड भी पाँचभौतिक देह अपने भीतर पापके प्रमाणोंका संग्रह करके रखता है। उस देहकी अधिष्ठात्री देवी चेतनाने उस पापको प्रत्यक्ष देखा होता है । उप्त जीवित देहका देही ही उसके पापका दण्ड उसे पगपगपर देते रहने के लिये उस देहमें चक्षुष्मान होकर रहता मौर उसे धिक्कारता रहता है । उस देहका देही उसके पापकी मिलनतासे उसके मनमें आत्मग्लानि उत्पन्न किये विना नहीं रहता। देही मानवमनका रूप लेकर सत्-असत्, पुण्य-पाप, सुखदुःखको अपनाने में स्वतंत्र होता है। अज्ञानके वश हो जाना, पुण्य त्याग देना, पापको अपनालेना, पवित्रताकी स्वाभाविक बाकांक्षाको पददलित होता देखना देहीके स्वभावके विरुद्ध होता है। इस प्रकार पापीका अपना ही पापस्वभाव उसीके लिये मन्तःशल्य बन जाता है। पतित मनको अपवित्रता रूपी वह वृश्चिक दंशन सब समय भुगतना पडता है। पतित मनके पास इस वृश्चिक दंशनसे बचनेका कोई उपाय शेष नहीं रहता। मनुष्य पाप भी कर ले और अशान्त भी न हो यह कभी संभव नहीं है । कोई भी जीवित देह शांति के अधिकारको भी त्याग दे और अशान्ति रूपी दुःखसे भी बचा रहे यह संभव नहीं है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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