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________________ चाणक्यसूत्राणि जब कि संसारका कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जो मनुष्य के पुरुषार्थ से सिद्ध न हो सके और जब कि प्रकृति दण्ड दाताका पूरा-पूरा साथ देने की प्रस्तुत है, तब पापीके अपराधको प्रकाश में लाकर उसके सिरपर समाजका दण्ड रख देना पुरुषार्थ से बाहर कदापि नहीं हो सकता। पापीके प्रच्छन पापों को भी दंडित कर सकना विशेष रूपसे उस अवस्थामें तो किसी भी प्रकार पुरुषार्थसे बाहर नहीं हो सकता जब कि पापी इकला-दुकला हो और सारे समाजका बल खुल्लम-खुल्ला दण्ददाताको पाप खोजनेकी पूरी सुविधा देकर उसका पूरा साथ देनेको प्रस्तुत हो। यदि प्रच्छन्न पापों का Rमाजकी दृष्टि में माना असंभव मान लिया जाय तो पापियोंको दण्ड मिलना भी मसंभव मान लेना पडेगा । जब कि प्रजापालनकी कला ही दण्डनीति है तब पापियों को दण्ड न मिल सकना राज्य. व्यवस्थाका निकम्मापन मानना पडेगा । राज्य-संस्थाकी दण्डनीतिने ही तो समाज में शान्तिकी स्थापना करनी है। आप सोचिये तो सही कि प्रजाका जो व्यक्ति प्रच्छन्न पापका माखेट बना है और उसपर मारयाचार करनेवाले पापीको दण्ड नहीं दिया जा सका है, तो शान्ति स्थापनाके नामपर राष्ट्रसे बडे-बडे वेतन डकार जानेवाले राजनीतिके पंडित लोग बतायें कि राज्यव्यवस्था उस मत्याचारितसे आजतक जो रक्षा तथा शान्ति स्थापनाके नाम पर कर लेती भा रही है और भविष्य में लेती रहना चाहती है उस करग्रहणका क्या औचित्य है ? नहीं, नहीं, हमें कहने दीजिये कि राज्यव्यवस्था जिन अत्याचारितोंको न्यायोचित सान्त्वना और हानिका विनिमय न दे सके उसे अत्याचारितोंसे कर ग्रहण करने का कोई मौचित्य नहीं है। भारतीय राजनीति चाहती है कि राष्ट्रवासियोंसे जीधन बीमेकी किस्तोंके रूप में ही कर लिया जाना चाहिये। राष्ट की दण्डनीति पूर्ण सशक्त होनी चाहिये। यदि दण्डनीति सशक्त हो तो पापियों के पापों को किसी भी रूप में अदंडित नहीं रह जाना चाहिये । माजकी राज्यव्यवस्थाने शांतिरक्षक पलिसको तथा उस विभागके कर्मचारि. योंको नागरिककी मोरसे की हुई अशांतिकी शिकायतपर हस्तक्षेप न करके
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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