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________________ ५०४ चाणक्यसूत्राणि अप्रभावित रहना निष्पक्षता है। व्यवहार में जितेन्द्रियता, निःस्वार्थता या सत्यसेवाको आधार बना लेना ही पक्षपात -रहित होना है। सत्यकी रक्षा पक्षपातरहित हो जाने से ही होती है। निष्पक्ष व्यवहार न करनेसे अपना तथा अपने समाज दोनों ही का अनिष्ट होता तथा समाजमें दुर्नीति की वृद्धि होती है। पाठान्तर- अपक्षपातेन व्यवहारः कर्तव्यः । ( व्यवहारकी धर्मसे मुख्यता अर्थात् व्यवहार अंगी धर्म उसका अंग ) धर्मादपि व्यवहारो गरीयान् ॥ ५४७ ॥ व्यवहार धर्मसे भी श्रेष्ठ या मुख्य है। विवरण- अव्यवहार्य धर्म धर्म ही नहीं है । धर्मको व्यवहारका रूप मिल जाना अर्थात् धर्माचरण तथा व्यवहारका एक बन जाना दूसरे शब्दों में व्यवहारका ही परमार्थ बन जाना या सकल प्रवृत्तियों का धर्ममय बन जाना ही धर्मकी सार्थकता है। व्यवहार ही धर्म कर्मक्षेत्र या माघारभूमि है। न्यवहार ही धर्मको प्रकट होने का अवसर देता है । व्यवहारके लिए ही धर्म है । व्यवहारमें धर्म का उपयोग न होना धर्म की व्यर्थता है। सत्यनिष्ठा ही मनुष्य का धर्म या स्वधर्म है ! व्यवहार में सत्यको प्रकट करना ही मनुष्यकी सत्यनिष्ठा है । यदि मनुष्यके व्यवहार में सत्य प्रकट न हों, तो मान लो कि असत्य ही उसके जीवन में प्रबल हो कर रह रहा है। जीवन में अपत्यके प्रबल होनेसे मनुष्यका अधार्मिक होना प्रमाणित होता है। वास्तव में देखा जाय तो लेखकके आधार गणनापट्टके समान व्यवहार हो धर्मका संरक्षक क्षेत्र है। धर्मको व्यवहारमें ही आत्मलाभ होता है । जो धर्म व्यवहारमें उपेक्षित रहता है, जो धर्म ग्यवहारभूमिमें उतरने का साहस नहीं करता, वह धर्म न होकर अधर्म का ही भावरणमात्र होता है। वह अधर्मको ही खुलकर खेलने की आज्ञा देनेवाला असत्य का ही चाटुकार बनकर रहने वाला नपुंसक, निर्वीर्य, अन्यावहारिक, आसुरी धर्म होता है । धर्मको
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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