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________________ व्यवहारको सुखद बनानेका उपाय 1 कोई भी संदेह नहीं रहता । वे लोग अपने कर्तव्य के सम्बन्धमें संदिहानावस्था में नहीं रहते । कर्तव्य पालन ही कर्तव्यपालनकी सफलता है । कर्तव्य. निष्ठ व्यक्ति फलाकांक्षा-रहित होकर भौतिक शुभाशुभ परिणामके सम्बन्ध में निरपेक्ष होकर, अपने कर्तव्यको पालने के सन्तोष रूपी फलको या यों कहें कि कर्तव्यको प्रेरणा देनेवाले शुद्ध भावना रूपी फलको पहले ही से अपनी मुट्ठी में बैठा हुआ पाकर निःसंकोच होकर जीवनसंग्राम के सिद्धहस्त विजयी वीर बन जाते हैं और कर्तव्य पालनका व्रत लिये रहते हैं । ५०३ व्यवहार में सत्यका तो विजयी रहना और असत्यका पराजित रहना ही कर्तव्या कर्तव्य - निर्णयकी कुशलताका परिचायक है । तत्त्वज्ञानका काम मनुष्यको अकार्य से रोकते रहना तथा कर्ताको संदिहान न रहने देना है । व्यावहारिक जीवन में भ्रान्ति बने रहना कर्तव्य निर्णयकी अकुशलताका ही परिचायक होता है । असत्यकी पहचान सत्यको अपना चुकनेपर ही होती है । सत्यको अपना चुकनेसे पहले असत्य नहीं पहचाना जाता | असत्यको पहचान चुकनेवर मनुष्यको स्वभाव से ही उसे त्यागनेकी कुशलता प्राप्त हो जाती है | सत्यको अपना चुकना ही तत्वज्ञान है । तत्त्वज्ञके व्यवहारमें शान्ति, सौमनस्य, दयालुता, कृतज्ञता आदि गुणोंकी लंबी पंक्ति होती है । उसमें अशान्ति नहीं रहती । जिसके व्यवहार में कर्तव्यभ्रष्टता, अशान्ति, गरमी, उत्तेजना, संदेह और कर्तव्य मूढता नहीं है वही तत्त्वज्ञ है । अथवा - तत्वज्ञान सफल कार्योंको ही कर्तव्य बताता है। वह निष्फल अकरणीय कर्मोंको कर्तव्य नहीं बताता । ( व्यवहारको सुखद बनाने का उपाय ) व्यवहारे पक्षपातो न कार्यः || ५४६ ॥ व्यवहार में पक्षपात नहीं करना चाहिये । विवरण - व्यवहार सत्यानुकूल होने से ही सुखद होता है मनकी निष्पक्ष स्थिति है । इन्द्रियोंकी अभिलाषाओं या भौतिक कार्मोसे | सत्य
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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