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________________ शास्त्रकी उपयोगिता ५०१ चरित्र की सत्यासत्य-परीक्षा करनेकी कसोटी बनकर रहता है। वह स्वयं सत्यको अपना स्वरूप जानकर सर्वज्ञ बन जाती और संसारको परखा करता है । ज्ञान ही अज्ञानसे मुक्त रहने या रखनेवाली सर्वज्ञता है। ( मानवको न पहचाननेवाला मूढ ) शास्त्रज्ञोऽप्यलोकज्ञो मूर्खतुल्यः ।। ५४३ ॥ लोक-चरित्रको न समझनेवाल। शास्त्रका उधारा ज्ञान रखने. वाला मानव मूर्ख ही रहता है। विवरण- ज्ञान शास्त्रोंके पन्नोंसे उधारा लेनेकी वस्तु नहीं है। न्या. वहारिक ज्ञान तो सत्यनिष्ट बनकर अपने ही अनुभवके माधारपर प्राप्त होता है। लोकज्ञ बन जाना ही ज्ञानी बन जाना है। लोकज्ञताको प्रयोजनीय तथा प्रधान बताना ही सूत्रका उद्देश्य है । व्यवहारमें लोकज्ञताका महत्त्वपूर्ण स्थान है। लोगों को शास्त्राध्ययनसे रोकना इस सूम्रका उद्देश्य नहीं है। पाठान्तर- शास्त्रज्ञोऽप्यलोको मूर्खध्वनन्यः । अनन्य शब्द तुल्यार्थक है । अर्थ समान है । (शास्त्रकी उपयोगिता ) शास्त्रप्रयोजनं तत्वदर्शनम् ॥ ५४४ ।। तत्त्वदर्शन अर्थात् लौकिक अलौकिक पदार्थोके याथार्थ्य या रहस्यका पूर्ण परिचय प्राप्त हो जाना या करा देना ही शास्त्रकी उपयोगिता है। विवरण- तत्वदर्शन न होनेपर शास्त्रपाठ तीन कौडीका रह जाता है । कर्तव्याकर्तव्य-निर्णय की कुशलता ही तत्वज्ञान है। अपने जीवनको सुखमय बनाना ही तत्व या मानव-जीवनका लक्ष्य है। ज्ञानके द्वारा दुःखातीत स्थितिको अपनाये रहना ही शास्त्र-पाठका उद्देश्य है और अपने जीवनपर सस्यका शासन बनाये रखना ही शास्त्रज्ञता है। शास्त्रनामक
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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