SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 514
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भृत्यका धर्म रहने से नगर, ग्राम, हाट, घाट, शिल्प, वाणिज्य आदि समस्त कार्यों में सौकर्य व्यवस्था और शान्ति मा जाती है। राजाज्ञाके अपालित रह जानेपर प्रजामें मात्स्यन्याय चल पडता है। निर्वलपर बलवानोंका दबाव या जिसकी लाठी उसकी भैंस ही मात्स्यन्याय है। जैसे बड़ी मछली छोटीको खा जाती है उसी प्रकार बलवान् लोगोंके निर्बलों पर अत्याचारका निष्प्रतिबन्ध चलते रहना ही मात्स्यन्यायका अभिप्राय है । (भृत्यका धर्म ) ( अधिक सूत्र ) स्वाम्यनुग्रहो धर्मकृत्यं भृत्यानाम् । अपने कर्तव्य-पालनसे प्रभुका अनुग्रह प्राप्त कर लेना ही भृत्योंका धर्माचरण है। विवरण -- राष्ट्रपालन ही राजकर्मचारियोंका एकमात्र धर्म है । राष्ट्रपालन द्वारा स्वामी की कृपा पा लेने पर ही मृत्योंकी उन्नति निर्भर है । स्वामीको कृपा न होनेपर शुभकर्म होना असंभव हो जाता है तथा कुपित होनेपर तो जोवन विघ्नोंसे घिर जाता है।। यथाऽऽज्ञप्तं तथा कुर्यात् ।। ५३३ ॥ लोकहितकारी कार्यों के सम्बन्ध राजाकी ओरसे जब जैसी आज्ञा मिले तब उसे कर लेने में सर्वात्मना लगकर उसे अवश्य पूरा करे। विवरण- राजकर्मचारी राजाज्ञाके विना कोई काम न करे जैसे प्रभु और भृत्यका सम्बन्ध माज्ञा देने और पालने का ही है। जो लोग राजा. ज्ञाके प्रति आत्मदान कर देते हैं वे ही अपनी और राष्ट्र की दोनों की उन्नति करते हैं । राज्यमें ऐसे ही लोग भृति स्वीकार करें। पाठान्तर- यथैव यत् स्वामिना आशापितं तथैव वा कुर्यात् ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy