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________________ चाणक्यसूत्राणि स्परिक अटूट प्रेमबंधनका आधार होती है । साधु पुरुषोंकी आत्मानुभूति उनके पांच भौतिक देहोंमें सीमित न रहकर विश्व के समस्त ज्ञानियों में व्याप्त रहती है । साधु भी आत्मानुभूति उसके दैहिक कारागारसे सीमित नहीं होती । साधुके पास सबके ही संबंध में कर्तव्य रहते हैं और वह उन कर्तज्योंको अपनी अनन्त श्रद्धा से इसलिये पालता है कि उसे विश्वभर के ज्ञानियों में आत्मदर्शन और आत्मसम्भोग करके अपना जीवन धन्यः करना है । ४८२ ( अनार्यका कपटी व्यवहार ) हृद्गतमाच्छाद्यान्यद्वदत्यनार्यः || ५२६ ॥ दुष्ट लोग मनकी दुष्टताको तो छिपाये रखते हैं और केवल जिद्वासे अच्छी बातें किया करते हैं । विवरण- दुष्ट लोग मनसे तो परवंचन, परस्वापहरण, परपीडन आादिके उपाय सोचते हैं और वाणीसे परोपकार, देशसेवा, साधुता आदिका बखान करते हैं । न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनः । स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते यथा प्रकृत्या मधुरं गवां पयः ॥ ८ " 'धर्मशास्त्रोंके वचन सुनाना, गंभीर सिद्धान्त बघारना, ऊंचे नारे लगाना और वेदाध्ययन करना दुरात्माको विश्वासयोग्य नहीं बना पाता । इसमें तो स्वभाव ही प्रबल रहता 1 आर्य वही है जिसका आचरण समाज के लिये वेदके समान प्रमाणभूत है। कार्य वही है जो अपने आचरणको यशोभिलाषासे कभी आत्मप्रचारका विषय नहीं बनाता। आर्यका आचरण ही देशसेवाका प्रत्यक्ष प्रमाण या मूर्तरूप होता है / आर्यका खानपान, रहनसहन, वाग्विनिमय आदि सब कुछ अपने समाजकी सेवाका रूप लेकर रहता है। उसका आचरण उसके मनके पूर्ण आत्मप्रसादका कारण होता है । उसके मन में अपने भात्मप्रसादको यशोलिप्सासे आत्मप्रचारके द्वारा कलंकित करनेकी मलिन भावना कभी स्थान नहीं पाती ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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