SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 508
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साधुका आश्रितोसे सद्वर्ताव फलभोगमें देवायत्तता है। कर्म करनेमें देवायत्तता नहीं है । सफलता ही पुरुषार्थ है और असफलता ही देव है । दे। निर्बल है और पुरुषार्थ प्रबल है । मनुष्य यह जाने कि कर्म या पुरुषार्थ करनेसे देवायत्तता नहीं है। जहाँ मनुष्य पुरुषार्थका काम न करे और कुंठित होकर हाथपर हाथ धरकर खडा होगया हो, वहाँ देव या रामकी इच्छा ही मानवकी एकमात्र शरण सम्वा, सुहृद तथा माता-पिता होती है। ऐसे समय मनुष्य का कल्याण इसीमे होता है कि वह प्रलयलीलाकारी भगवान में परम समर्पण कर दे और मत्युसे अभिन्न होकर या उसे अभिहृदय मित्र के रूप में आलिंगन करके इस संहार-लीलाको तटस्थ भाव से देखें । और अपने भौतिक अस्तित्व के विनाशमें अपनी स्वीकृतिकी मुद्रा लगाकर जीवन्मुकों की मौत मरे । पाठान्तर- देवायत्तं न शोचयेत् । साधुका आश्रितोंसे सद्वर्ताव ) आश्रितदुःखमात्मन इव मन्यते साधुः ।। ५२५।। उदारचेता साधु पुरुष आश्रितोंके दुःखों को अपने ही ऊपर आया हुआ दुःख मानकर उस दूर करने के लिये अपने व्यक्तिगत दुःखोंको हटाने जितना ही सुदृढ प्रयत्न करता है। विवरण-~- साधु पुरुष प्राश्रित के दुःख को उसक! व्यक्तिगत दुःख मानने के स्थान में उसे अपना ही दुःख मानकर उसका प्रतिकार करता है। सत्पुरुषके दुःखको स्वदुःख मानना ही तो सावुकी साता है और यही उपकी महत्ता भी है।। ___ आत्मोपम्येन सर्वत्र दयां कुर्वन्ति साधवः । मायु स्वयं सत्याश्रित होता है । वह सत्यमें आत्मसमर्पण करके स्वयं सत्यस्वरूप होचुका होता है । सत्यमें आत्मसमर्पण कर देनेवाले उस जैसे सब लोग उसके आश्रितों में गिने जाकर उपकी सेवा पाने के अधिकारी हो जाते हैं। माश्रित और माश्रयदाता दोनों की एकता ही सेव्यसेवक के पार. २१ ( चाणक्य.)
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy