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________________ विश्वासघातकी दुर्गति ४७९ प्यका हितकारी माता, पिता, प्रभू आदि नामोसे सम्मानित होकर मानवके हृदय सिंहासनका सम्राट बनने का अधिकारी है। सत्यसे विश्वासघात अर्थात् मसत्यकी दासता करना ही विश्वासघात नामका अपराध है। असत्यकी दासता करना जन्मसे ही मानवके साथ सम्बद्ध शुभसंकल्पकका विघात कर देना है। जिसने एकवार मित्रताका हनन किया है उसे कभी भी यह भ्रान्ति करके कि वह सुधर गया है, विश्वास मत करना । राष्ट्रसे विश्वासघात करके राज्य हथियानेवाले देशद्रोहियों की पहचान होजानेके अनन्तर उन जैसे प्रतारक, ढोंगी नेताओंसे सदा सावधान रहना चाहिए। सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ ( भगवदगीता) प्रजाओं के स्वामीने प्रजामों को यज्ञ अर्थात् उच्च भावना या उच्च बुभूषाके साथ उत्पन्न किया है और उनसे कह दिया है कि तुम जो कुछ मर्जन, उत्पादन या भक्षण करो इसीसे करो। तुम अपने किसी भी कामसे अपनी ऊर्ध्वगामिताको पददलित मत होने दो। तुम अपनी कामनामों को यज्ञभावनासे पूरा करो । जीवनको यज्ञका रूप देकर रक्खो । तुम्हारी यज्ञभावना ही तुम्हें इष्ट भोग देनेवाली बने । तुम अयज्ञिय अशुभ भावनासे अपनी कामपूर्ति मत चाहो । सत्पुरुष ही सत्पुरुषका विश्वासपात्र होता है। चोर सत्यके साथ विश्वासघात करके ही चोर बनता है। मनुष्य अपने हृदयेश्वर सत्यके साथ विश्वासघात किये विना चोर नहीं बन सकता। सत्पुरुष सत्पुरुषके साथ की विश्वासघात नहीं करता। जो कोई सत्पुरुषोंसे विश्वासघात करता पाया जाता है वह चोर ही होता है। वह धोखा देकर कपट सन्त बनकर विश्वासका हनन किया करता है। इस दृष्टि से मनुष्यका सरपुरुष न होना ही समाज के साथ विश्वासघात है । सस्य ही विश्वास है। विश्वासका सम्बन्ध सत्यका ही सम्बन्ध है । सत्यको त्याग देना विश्वासघात दी है । सत्यद्रोही मज्ञानी
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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