SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चाणक्यसूत्राणि कभी भी सहमत नहीं होता । इसलिये मनकी स्वतंत्रावस्था ही उसका वास्तविक निवासस्थान है | स्वतंत्र मनका देह उस स्वतंत्र स्थितिको सुरक्षित रखकर कर्तव्यवश जब, जहां, जिस परिस्थिति में रहता है, वहीं वह अपनी स्वतंत्रताको सुरक्षित रखकर सत्यकी अधीनता स्वीकार कर तथा अस त्यको पददलित करके अपने मानस सुखको भटल बनाये रहता है । अपने बाहु ( पुरुषार्थं ) के प्रतापसे अर्जित स्थान ही मनुष्य के लिये सुखकर होता है । जो लोग अपने पुरुषार्थं से अपने भाग्य के स्वयं ही विधाता होते हैं उन्हें ही सुखद स्थान प्राप्त होते हैं । वे जहां जाते हैं वहीं उन्हें सुखद स्थान प्राप्त होजाते हैं । ४७८ को वीरस्य मनस्विनः स्वविषयः को वा विदेशस्तथा यं देशं श्रयते तमेव कुरुते बाहुप्रतापार्जितम् । यदंष्ट्रानख लांगलप्रहरणः सिंहो वनं गाहते। तस्मिनेव तद्विपेन्द्ररुधिरैस्तृष्णां छिनत्यात्मनः ॥ वीर पुरुष के लिये देशविदेशका कोई प्रश्न नहीं होता । वह जहां पहुं चता है उसे ही अपने बाहु-प्रतापसे अनुकूल स्वदेश बना लेता है । क्या संसारमें देखते नहीं है कि सिंह जिस वनमें घुसता है वहां स्वयं मारे हाथियोंके रक्त से अपनी प्यास बुझाता है । ( विश्वासघाती की दुर्गति ) विश्वासघातिनो न निष्कृतिः ।। २२३ ।। विश्वासघातीका उद्धार नहीं है । विवरण -- विश्वासघातीका पापमोक्ष, निस्तारा, बचाव, सुधार या प्रायश्चित नहीं है । संसार के समस्त व्यवहार विश्वासमूलक होते हैं । विश्वासघाती प्रत्येक दुराचार कर सकता है । मित्रताका सम्बन्ध ही विश्वासका संबन्ध है । सत्य ही मनुष्यमात्रका अनन्य मित्र है । हितकारी होना ही मित्रकी परिभाषा है । इस संसार में केवल सत्य ही वह वस्तु है जो मनु
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy