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________________ आत्मप्रशंसा अकर्तव्य ४५९ मानव-जीवनका उद्देश्य निकृष्ट बनना नहीं है। उत्कृष्टता ही मानवजीवनका लक्ष्य है। दीनता दुराशाका ही विकार है । मृत्यु मनुष्यको केवल एकबार मारती है जब कि दीनता उसकी मनुष्यताका प्रत्येक क्षण दम घोटती रहती है। ( आशाके दास निर्लज्ज ) आशा लज्जां व्यपोहति ॥ ५०७ ॥ आशा ( अर्थात् विषय- लोलुपता जिसे दुराशा भी कहना चाहिये ) मनुष्यकी लज्जा अर्थात् शिष्टताको नए करती और लोभाग्निको प्रज्वलित करती है। विवरण- आशा मनुष्य को गर्दित, अविचारित, अनुचित काममें लगा डालती है । माशाधीन मनुष्य लज्जा त्यागकर शिष्टताको तिलांजलि देकर असाध आचरण करनेपर उतर भाता है। वह किसी भी पास अपना लोभ पूरा होने के सपने देखकर उसके आगे हाथ पसार देता है और अपमानित होता है। पाठान्तर--- आशापरो निर्लज्जो भवति । पाशाका दास मानध लजा त्यागकर असाधु आचरण करता है। न मात्रा सह वासः कर्तव्यः ॥ ५०८ ॥ ( आत्मप्रशंसा अकर्तव्य ) आत्मा न स्तोतव्यः ॥ ५०९॥ अपनी प्रशंसा नहीं करनी चाहिये । विवरण-प्रशंसनीय माचरण करने की ही आवश्यकता है, आत्मप्रशंसा करने की नहीं । भात्मप्रशंसासे श्रोतृसमाजके धैर्य पर माक्रमण होता है तथा वक्ता स्वयं निंदित होजाता है । प्रशंसनीय भाचरण स्वयं ही मूर्तिमान प्रशंसा बन जाता है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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