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________________ ४५८ चाणक्यसूत्राणि मार्गके कांटे इस आशाको धक्का देकर अपने मार्गसे दूर नहीं हटा देगा, तबतक वह भोजस्वी, तेजस्वी, अष्य, अप्रकाम्य, उदात्त, सम्मानित जीवन नहीं बिता सकेगा। आशाके दासके पास सम्मान, स्थिरता, धीरज, तेज, मोज और विजयी जीवन नामकी कोई वस्तु नहीं होती। आशायाः खलु ये दासा दासास्ते सर्वलोकस्य । येषामाशा दासी तेषां दासायत लोकः ।। आशाके दास सारे ही संसारके दास होते हैं । जो लोग आशाको अपनी दासी बना कर रखने की कला जान जाते हैं, यह संसार उनका दास होजाता है। माशाके दासकी भाशा कभी पूरी नहीं होती । भाशाके दासका संपूर्ण जीवन नैराश्यमय होकर दुःखभरे दीर्घ निःश्वासोंसे भरपूर रहता है। ___अश्नुते विक्षिपति जनमिति आशा।' जो मनुष्यको व्याप्त करके विक्षिप्त बना डाले उसे माशा कहते हैं। पाठान्तर--नास्त्याशापरे धैर्यम् । (अनुत्साह मृतावस्था ) दैन्यान्मरणमुत्तमम् ॥ ५०६ ॥ दीन बननेसे तो मर जाना उत्तम है । विवरण--- अपने को दीन, निकृष्ट, निकम्मा, असहाय, कृश, अपरिच्छद समझकर अनुत्साहित हो बैठना मर जानेसे भी निकृष्ट अवस्था है । दैन्य न रहना ही जीवन की सार्थकता या जीवित हृदयवाली स्थिति है। जीवनके उद्देश्यको उपेक्षित करके जीवनमृत रहने की स्थितिको निन्दित तथा जीवनको सार्थक करने के लिये उत्साहित करना ही इस सूत्रका अभिः प्राय है, मृत्युका आह्वान करना नहीं। मृत्यु को अच्छा माननेकी मनोदशा किसी भी अवस्थामें प्रशंसनीय नहीं है। जीवन ही जीवित मनुष्य के लिये वरणीय स्थिति है । जीवनका अन्त कर डालनेकी भावना मानव-देहधारणके उद्देश्य के विरुद्ध है । अपने को दीन, निकृष्ट, निकम्मा समझकर अनुत्साहित हो बैठना मृत्युसे भी निकृष्ट अवस्था है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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