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________________ संसारका महत्वपूर्ण सुख इस सूत्रका मभिप्राय अपने पाठकोंके केवल मूर्ख मित्रसे बचाने तक सीमित है । इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि शत्रुता करनी हो तो विवे. कीके साथ करनी चाहिये । मूर्खसे मित्रता जोडने तथा मूढताको दृढताके साथ निन्दित ठहराने के लिये ही विवेकी शत्रुकी उत्तमताको उपमाके रूप में उपस्थित किया गया है। (निन्दित कुलोत्पन्न का चिन्ह ) निहन्ति दुर्वचनं कुलम् ॥ ४८७ ॥ दुर्वचनसे कुलके गौरवका नाश होजाता है। विवरण- दुर्वचन वक्ताके कुलको कलंकित कर देता है। वचनकी निर्दोषता ही मनुष्य के उच्च कुलका प्रमाणपत्र है। दुर्वचनी लोग अपने कुलको निश्चितरूपसे कलंकित घोषित कर देते हैं। मुख से वचन निकलते ही सबसे पहले वक्ताके कुल का परिचय मिलता है कि यह कैसे कुल में पला है ? मनुष्यका व्यक्तिगत परिचय तो पीछेसे होता है। सूत्र कहना चाहता है कि वक्ता लोग वचन बोलते समय अपने कुलके गौरवका ध्यान रखकर बोलें। पाठान्तर-नाति दुर्वचनं कुलम् । यह पाट अर्थहीन है। ( संसारका महत्वपूर्ण सुख ) न पुत्रसंस्पात् परं सुखम् ॥ ४८८॥ पुत्र-लाभ सांसारिक सुखों में सर्वोत्तम सुख माना जाता है । विवरण- इस सृष्टि के विधाताने अपनी सृष्टि-परम्पराको चलाने तथा मातापितासे पुत्रोंको पलवाने के लिये उन्हें पुत्र मोह नामकी सुदृढ रज्जुओंसे बाँधा हुआ है। इसी प्रबन्धसे यह सृष्टि-परम्परा चल रही है । यदि संसारमें पुत्र सुख नामकी वस्तु न होती तो सृष्टि-परम्पराका चलना ही पसं. भव हो जाता। पिताको दुःखमयी या पापमयी स्थिति से उबारनेवाला ही पुत्र नाम पानेका अधिकारी है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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