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________________ ४४४ चाणक्यसूत्राणि और ज्ञानी ही उसका परम मित्र है । ज्ञानकिी भोरसे कभी किसी अनिष्टकी शंका नहीं है। मूर्खकी ओरसे कभी किसी भलाई या हितकी आशा दराशा है। दस्यु, तस्कर, पामर लोगोंसे कुछ भौतिक लाभ उठानेसे तो यह अच्छा है कि मनुष्य भौतिक लाभसे वंचित रहे। इस प्रकारके हीनलाभ भाते ही माते अच्छे लगते हैं परन्तु ये हानि किये विना नहीं मानते । सत्पुरुषों के संगसे भौतिक लाभ न होनेपर भी शान्ति तो निश्चित होती है। असाधु. समागम दुग्ध तथा अम्ल के संबन्धके समान हानिकारक होता है। इस विषम संबन्धसे दग्धका दग्धत्व ही नष्ट होजाता है । साध-समागम दुग्ध तथा मिष्टके समागम जैसा समसंबन्ध होता है और सुखद होता है। इस संगमसे दुग्ध में माधुर्यकी वृद्धि हो जाती है । मार्य तथा अनार्य विवेकी और अविवेकीके पर्यायवाची शब्द हैं। अविवेकी के पास हिताहितबुद्धि नहीं होती । विवेकी वह है जिसमें हिताहितबुद्धि होती है । विवेकी मित्र सब समय हिताहितबुद्धि से शून्य होकर अनिष्ट ही किया करता है। कोई भी बुद्धिमान् अविवेकी मित्रपर विश्वास करके निश्चित नहीं रह सकता। इसलिये विवेकी मनुष्य किसीको मित्ररूपमें स्वीकार करके भी जर उसकी विवेकिताके संबन्ध में पूर्ण सन्तोष पा लेला है तब ही उसका मिन्न जैसा विश्वास करता है। यदि उसे उसके अविवेकी होने का प्रमाण मिल जाता है तो वह उसे अपने मित्रत्व से वंचित कर देता है। इस सुत्रकी भाषासे यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या कभी कोई विवेकी किसी विवेकीसे शत्रुता कर सकता है ? इसका समाधान यही है कि कोई भी विवेकी जानबूझकर अपने जैसे विवेकीसे शत्रुता कर ही नहीं सकता । यदि कोई विवेकी दैववश लोक-चरित्रकी अनभिज्ञताके कारण किसी विवेकीके अपापविद्ध शुद्ध हृदयका परिचय न पाकर, उसके बाह्य व्यवहा. रमें संदिहान होकर, उसे शत्र समझ बैठे और उससे शत्रु जैसा बर्ताव भी कर डाले तो भी वह शत्रु समझा हुभा विवेकी व्यक्ति उसके साथ जो कोई बर्ताव करेगा वह माक्रामक बर्ताव न होकर भात्मरक्षात्मक होगा।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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