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________________ ४०४ चाणक्यसूत्राणि रखनेवाला तथा सत्यके सम्बन्धमें संदिहान रहनेवाला व्यक्ति विनष्ट होचुका होता है । ' इस दृष्टिसे निःसंकोच होकर समाजके श्रेष्ठतम व्यक्तियों के सत्यका गुणगान करना सच्ची लोककल्याणकारिणी सेवा या वाक्चातुरी है। दोष या अपमानकी बातें सुनकर श्रोताके मनमें वक्ताके प्रति अप्रीति और उद्वेग पैदा होजाता है । इसलिये पराराधन-पण्डित लोग अपने प्रिय मधुर सत्य भाषणोंसे ज्ञानी श्रोताओं को अपने अनुकूल बनाया करें। पाठान्तर- स्तुता देवा अपि चिरं तुष्यन्ति । स्तुतिसे भावर्जित देवतातक स्तावकपर कृपालु होजाते हैं। (दुर्वचन द्वेपोत्पादक ) अनतमपि दुर्वचनं चिरं तिष्ठति ॥ ४४४॥ दुसरोंको संताप पहुंचाने या अवज्ञा करनेकी भावनासे कहा दुर्वचन अनृत (निराधार) हो तो भी श्रोताकी स्मृतिपर चिरकाल तक अपना द्वेषमूलक हानिकारक दुष्प्रभाव बनाये रहता है । विवरण- सन्ताप पहुंचाने की भावनासे किसीको साधार दुर्वचन कहना भी अनुचित है । निराधार दुर्वचन तो कभी किसीको कहना ही नहीं चाहिये । साधार दुर्वचन कहना पडे तो भी उसकी मर्यादाओंका पालन तो करना ही चाहिये। यदि दुर्वचन किसी अपराधको भत्सना रूप हो और उचित मर्यादामें हो तो वह कल्याणकारी होता है। कर्तव्यवश किसीकी वास्तविक भूलपर कहे गए अवज्ञा या सन्तापकारी वचनसे अपराधी श्रोताको भात्मसुधारका अवप्तर दिया जाता है । सत्याधारित दुर्वचन इस विचारके प्रभावसे भसित श्रोताकी बुद्धिको विद्रोही नहीं बनाता। वह उसे मारमसंशोधनका अवसर देकर सार्थक होजाता है । मसल्याधारित या सहनको सीमासे बाहरवाला दुर्वचन श्रोताको वक्तासे बदला लेनेके लिये उत्तेजित करता है। दुर्वचन स्वयं एक महापराध है । दुर्वचनका उद्देश्य या परिणाम कलह
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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