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________________ प्रिय वाणीका महात्म्य ४०३ मुनेरपि वनस्थस्य स्वानि कर्माणि कुर्वतः । उत्पद्यन्ते त्रयः पक्षा मित्रोदासीनशत्रवः ॥ पञ्च त्वानुगमिष्यन्ति यत्र यत्र गमिष्यसि । मित्राण्यमित्रा मध्यस्था उपजीव्योपजीविनः ॥ ( विदुर ) अपनी मुनिवृत्ति में लगे हुए एकान्तवासी मुनिके भी मित्र, उदासीन, शत्रु नामक तीन पक्ष उत्पन्न हो ही जाते हैं । तू जहां कहीं जायगा वहीं मित्र, शत्रु, मध्यस्थ, उपजीव्य तथा उपजीवी तेरे साथ साथ चलेंगे । ज्ञानी पुरुष अपनी हितोक्तियोंसे सम्पूर्ण समाजका मित्र बना रहकर समाजके शत्रुओं को पराभूत करता रहता है । स्तुता अपि देवता स्तुष्यन्ति ॥ ४४३ ॥ मधुरवचन के समर्थन में संसार में यह लोकप्रिय लोकोक्ति प्रचलित है कि स्तुति से तो अदृश्य देवतातक प्रसन्न होकर प्रार्थी की मनोकामना पूरी कर देते हैं मनुष्यका तो कहना ही क्या ? विवरण - सूत्र कहना चाहता है कि शक्तिशाली सत्पुरुषके कानों में पडा हुआ उसका गुणकीर्तन व्यर्थ नहीं जाता । वह उसे गुणग्राही सत्यवादी स्तावक के प्रति आकृष्ट करनेवाला अमोघ साधन बन जाता है । सत्य ही मनुष्यहृदयका स्वाभाविक स्वामी है । मानवहृदयका स्वाभाविक स्वामी सत्य ही सम्पूर्ण मनुष्यसमाजका शक्तिशाली प्रभु है । वाणीके द्वारा सत्यका प्रचार करने से समाजका कल्याण सुनिश्चित होजाता है । सत्यका प्रचार कभी भी समाजका हित करनेमें व्यर्थ नहीं जाता । मनुष्यको इस ध्रुव सत्यको ध्यान में रखकर किसीके आसुरी प्रभाव में आकर सत्यकी शक्तिके संबन्ध में संदिद्दान नहीं हो जाना चाहिये । गीता के शब्दोंमें "6 by " अश्वश्चाश्रद्धधानश्च संशयात्मा विनश्यति । $ अपने स्वरूप सत्यका ज्ञान न रखनेवाला, अपने स्वरूप सत्यपर श्रद्धा न
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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