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________________ ३८२ चाणक्यसूत्राणि इसके विपरीत प्राकृतिक विधानसे अतिवृष्टि, अनावृष्टि, उल्कापात, शलभ, दुर्मिक्ष, महामारी आदि संकट काल मा खडा होनेपर भी यदि समाज में समाजकल्याणबद्धि जाग रही हो और उससे समाजबन्धन सुदृढ रहरहा हो तो इन सार्वजनिक बाकस्मिक विपत्तियों को व्यर्य करनेकी शक्ति समाजके सहोद्योगसे उत्पन्न होसकती है। समाजमें आकस्मिक विपत्तियों को सामाजिक सहोद्योगसे व्यर्थ करने की शक्तिके उत्पन्न होजानेपर वह शक्ति सार्वजनिक कल्याणमें उपयुक्त होने लगती और समग्र समाजपर सुखशांति बरसाने लगती है । समाजमें सस्यका अभाव होजाने अर्थात् सम्पूर्ण समाजके सत्यहीन होजानेपर समाजमें अन्नकष्ट, महामारी, राष्ट्रविप्लव, बाह्य भाक्रमण आदिका प्रकोप संहारकी मूर्ति धारण कर लेता है । समाजके सत्य हीन होजानेपर इन ऊपरवाले प्रकोपोंके न होनेपर भी जब समाज में समाजघाती आसुरी शक्तिका प्रकोप होजाता है तब वह प्रकृतिको समिक्ष करनेवाली अमतवर्षाको भी व्यर्थ बनाकर अपने विषाक्त मनसे समाजको विनष्ट कर डालता है। सत्य ही समाजको धारण करनेवाला एकमात्र आधार है । सत्यहीनता मापाततः चाहे जितनी मधुर फलवर्षिणी लगनेपर भी भासुरिकताकी ही संहारलीला है। अथवा- मानवसमाजमें सत्यकी प्रतिष्ठा रहनेपर ही देश में अपेक्षित उचित वृष्टि होती है । देशमें सुव्यवस्थिति शान्तिवृष्टि चाहनेवाले लोग देशवासियोंके चरित्र में सत्यकी रक्षा होते रहनेका पूर्ण प्रवन्ध करें । देशके चरित्रमें सत्यका द्रोह भी होता रहे और वहां सब प्रकारकी शान्ति भी बनी रहे यह संभव नहीं है। इसका कारण यह है कि मनुष्य इस बातको जाने या न जाने और माने या न माने वह स्वयं ही इस सृष्टिका विधाता है । इसलिये उसके चरित्रका सष्टिप्रबन्धपर प्रभाव पड़ना अनिवार्य है। जैसे गृहव्यवस्थापर कौटम्बिक लोगोंके पारस्परिक मनोमालिन्य और मसहयोगका दुष्प्रभाव पडे विना नहीं रहता, इसी प्रकार संसारके लोगों के दुश्चरित्रका सांसारिक
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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