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________________ सर्वत्यागकी स्थिति ३४७ स्थितिरूपी सत्यको सुरक्षित रखने के लिये ) अपने संपूर्ण पार्थिव स्वार्थीको त्याग दे। विवरण- यहांतक त्याग दे कि संपूर्ण राष्ट्रके असत्यका दास होजाने पर सत्यरक्षा या भात्मरक्षाके नाम पर निःसंकोच होकर संपूर्ण संसारका विरोध करनेको खडा होजाय । एकमात्र सत्यरक्षा ही मनुष्यकी मात्मरक्षा है । मनुष्यजीवनका लक्ष्य यही है कि मनुष्य सत्यस्वरूपको अपनाये, विश्व. विजयी बने, सम्पूर्ण जगत्के असत्य मिथ्याचार भनधिकार अन्यायके विरोधमें खडा होजाय और सत्यस्वरूप आत्मस्थितिकी रक्षा करे। यही मनुष्य के जीवनका व्यक्तिगत मादर्श भी है। मनुष्य इस अपने व्यक्तिगत मादर्शको कभी न भूले । आत्म विस्मतिमें न पडना ही मनुष्य जीवनका लक्ष्य है। अपने राष्ट्र की सेवा करना ज्ञानीका ही भस्याज्य धर्म है। ज्ञानी ही राष्ट्रका संरक्षक होता है। अज्ञानी तो राष्टके घातक होते हैं। इनका तो राष्ट्र के साथ केवल स्वार्थका संबंध होता है । अज्ञानी लोग तो राष्ट्र के बहे. लिये ( शिकारी) होते हैं। इनकी दृष्टि में समाज स्वार्थसाधनरूपी लूटक। क्षेत्र होता है । ज्ञानी राष्ट्रके साथ परमार्थ या सेवाका संबंध रखता है। मनुष्य यह जाने कि अपने व्यक्तिगत कल्याणमें ही राष्ट्रका तथा राष्ट के कल्याणमें व्यक्तिका कल्याण है। मनुष्य ज्ञानी बना रहे यही उसका व्यक्तिगत कल्याण है। मनुष्यका इससे बड़ा और क्या कल्याण हो सकता है कि वह ज्ञानी हो । यदि संयोगवश ज्ञानीका संपूर्ण राष्ट्र अज्ञानी बन जाय, उस समय ज्ञानीका पवित्र कर्तव्य हो जाता है कि वह संपूर्ण राष्ट्रक कल्याणको अपने में केन्द्रीभूत करले और अकेला ही असत्यका विरोध करके सत्यके रक्षक बनने के स्वाभाविक मानवोचित अधिकारका भोग करे और अपनेको इसी में गौरवान्वित माने । ज्ञानी अकेला होनेपर भी संपूर्ण राष्ट्र का कर्णधार होता है। एकोऽहमसहायोऽहं कृशोऽहमपरिच्छदः । स्वप्नेऽप्येवं विधा चिन्ता मृगेन्द्रस्य न जायते॥
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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