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________________ मातृसेवा अत्याज्य कर्तव्य बने रहना ही इस ऋणको उतारनेका एकमात्र उपाय है। पिताके हाथों में भौतिक दबाव रहने के कारण पिताकेप्रति अकृतज्ञ लोग उसकी सेवा तो कुछ सीमातक करते हैं । परन्तु माताके हाथोंमें भौतिक दबाव न होने के कारण यदि सन्तान अकृतज्ञ हो तो माता उसके ऊपर अपनी सेवाके लिये कोई भी भौतिक दबाव नहीं डालसकती। जिस योग्य सन्तानमें मातृभक्ति होती है वह अहेतुकी कर्तव्यबुद्धि से ही होती है। इस कर्तन्यबुद्धिको स्वीकार करना ही सन्तानकी मातृभक्ति है। जो सन्तान किसी प्रकार के भौतिक या पार्थिव दवावके बिना केवल पवित्र कर्तव्यबुद्धि से प्रेरित होकर मातृभक्ति करता है उसकी यह कर्तव्यबुद्धि उसके जीवनके प्रत्येक कर्मक्षेत्र में प्रकट रहती है। जो पवित्रकर्तव्यबुद्धिसे अपनी माताकी सेवा करता है वही समाजकी सच्ची सेवा करसकता है। यदि समाजको सच्चे देशसेवक ढूंढने हों तो उनके विषय में यह देखना चाहिये कि वे अपनी माताकी निष्कामसेवा करते हैं या नहीं? मातृसेवारूपी कर्तव्यबुद्धिका समाजसेवाके रूपमें प्रति फलित रहना ही मनुप्यकी मनुष्यता है। समाज. संवा भी तो वास्तव में मातृसेवा ही है । जन्मभूमि भी तो मनुष्य की माता ही है । दूध पिलानेवाली माता तथा अन्नदायिनी जन्मभूमि दोनोंका एक ही जैसा पूज्य स्थान है। ‘माता भूमिः पुत्रोहं पृथिव्याः ' जो एक माताको पहचानेगा वह दोनों माताओं को पहचानकर रहेगा। जो एककी उपेक्षा करेगा वह दूसरीकी भी अवहेलना किये बिना नहीं मानेगा। समाजसेवा देशभकिके रूप में जन्मभूमिरूपी माताकी ही मानवोचित सेवा है। जननी तथा जन्मभूमि दोनों की सेवा मातृभक्तिके ही दो बाह्य रूप हैं। पारिवारिक शान्तिको सुरक्षित रखनेकी कला मातृभक्तिमें ही सन्निहित है । जो मातृभक्ति के द्वारा अपनी पारिवारिक शान्तिको सुरक्षित रखनेकी कला सीख लेता है वहीं समाजसेवाके द्वारा अपनी माताके मात. स्वको सार्थक करते हुए अपनी जन्मभूमिको शान्तिको सुरक्षित रखनेकाला नि:स्वार्थ कर्मवीर निकलता है। मातृभक्तिके भीतर निःस्वार्थ समाजसेवाका
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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