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________________ चाणक्यसूत्राणि मनुष्य अपने बाह्य दर्शनों में इन्द्रियोंकी स्वाभाविक विषयासक्तिके ऊपर विजय पाकर रहे । राज्यव्यवस्थाके संबंधसे राजकर्मचारियों का स्त्री अपराधि. योंके साथ संबन्ध होना अनिवार्य होता है । राज्याधिकारी लोग प्रबन्धवश अधिकारमें भाजानेवाली अपराधी, पीडित या अत्याचारी स्त्रियों को राष्ट्रकी धरोहर मानकर उनके साथ सुसंयन व्यवहार करे । (स्त्रीजातिकी अविश्वास्यता ) स्त्रीषु किंचिदपि न विश्वसेत् ।। ३६०॥ स्त्रीजाति पर थोडासा भी विश्वास न करें। विवरण- ऊपरसे देखने में यह माक्षेप स्त्रीजातिपर प्रतीत होता है। परन्तु आर्य चाणक्यका यह आक्षेप वास्तव में स्त्री जातिको ज्ञानालोकसे वचित करके उसे दलित स्थितिमें रखनेवाले पुरुष समाजपर ही है। हम इम सूत्रका यह अभिप्राय कदापि स्वीकार नहीं कर सकते कि मनस्वी व्यक्ति अपनी धर्मपरायणा सुयोग्या तपस्विनी विदुषी सहधर्मिणीका भी विश्वास न करे । मनस्वी व्यक्तिका तो यह उत्तरदायित्व है कि वह गाह. यधर्मका पालन सपत्नीक करे । इस दृष्टि से अपनी सहधर्मचारिणीको विश्वासपात्र बनाये रखने के लिये उसे ज्ञानालोक देना भी उसीका उत्तरदायित्व है। सूत्रकार कहना केवल यह चाहते हैं कि इस उत्तरदायित्वको पूरा न करनेवाला व्यक्ति अपने उस उत्तरदायित्वको पूरा करें अन्यथा उसके गाहस्थ्य जीवन में अविश्वास मूलक अशान्तिका होना अनिवार्य है । इसके अतिरिक्त राष्ट्र कल्याणसे संबंध रखनेवाले राज्यव्यवस्था संबंधी गुष्ठ विषयों को सुगुप्त तथा सुरक्षित रखने के कठोर कर्तव्यको दृढतासे पालनेकी दृष्टि से यह अत्यन्त भावश्यक है कि राज्य के वे परिचालक लोग जो राष्ट्रके गुप्त विषयों को समग्र बाह्य संसारसे सरक्षित रखने के उत्तरदायी हों अपनी विश्वासपरायणा सहधर्मिणी तकसे भी गष्त रक्खें । जैसे राष्ट्र का मंत्र अन्य पुरुषों को नहीं बताना है इसी प्रकार राष्ट्र का रहस्य अपनी सहधार्मिणी तकको नहीं बताना है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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