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________________ विवाहप्रथा अपराधरोधक धर्मबन्धन ३१७ इसीप्रकार धनी लोग अपनेको सत्कर्मके आनन्दसे वंचित करके धनचिंताके भारसे आक्रान्त रहते हैं। पाठान्तर- नास्ति यानवतां गतिश्रमः । (विवाहप्रथा स्वकृत अपराध-रोधक स्वेच्छा-धर्मबन्धन ) अलाहमयं निगडं कलत्रम् ॥ ३५६ ॥ भार्या भर्ताके लिये बिना लोहेकी (अर्थात् अपनी सम्मतिले स्वीकार की हुई ) बेडी है। विवरण-जैसे अपराधीको बलपूर्वक लोहेकी बेडी पहनाकर उसे अपराध करने से रोका जाता है इसीप्रकार वैवाहिक प्रथा भी एक प्रकार की स्वेच्छास्वोकृत अपराधरोधक बेटा है। एकनिष्टदाम्पत्यकी प्रथा विवाहित व्यक्तिको अपने ही हार्दिक अनुमोदनसे सामाजिक शृंखलामें बांध रहती है । जो दम्पति इस प्रथाको स्वीकार करके वैवाहिक संबन्ध जोडते हैं वे अपनी ही इच्छासे सामाजिक शृखलाकी अधीनता स्वीकार करते हैं। यह बन्धन धर्मका बन्धन है । समाजमें शान्तिकी स्थापना करना धर्मबन्धनसे ही संभव है । मानवधर्म स्वयं ही एक सुदृढ बन्धन है। वहीं इस दाम्पत्य संबन्धको समाजकल्याणकारी शासनके अधीन रखता है। इस बन्धन में रहनेवाले दम्पति ही अपने जीवनको समाजकल्याणमें सम. र्पित कर सकते तथा अपने राष्ट्रको धर्मरक्षा करनेवाली शक्तिमती राज्यव्यवस्थाका संगठन करनेवाली प्रभुशक्ति के रूपमें सुप्रतिष्ठित करसकते हैं । चाहे स्त्री हो या पुरुष जो कोई इस धर्मबन्धनको तोडता है वह अधार्मिक तथा राष्ट्रधाती होकर समाजको पतित करदता है तथा अपनी उच्छखल प्रवृत्तियोंसे राज्यव्यवस्था भी मनैतिकताको प्रवेशाधिकार देबैठता है। विवाहबन्धनकी पवित्रताकी अवहेलना करनेवाले अनैतिक समाजके द्वारा निर्मित अनैतिक राज्यव्यवस्था अपने कुप्रभावसे राष्ट्रको छिन्न-भिन्न कर डालती तथा धर्मबन्धनहीन लुटेरोंके उच्छृखक झुंडके रूपमें परिणत होजाती है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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