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________________ ३१४ चाणक्यसूत्राणि दूसरोंके जीवनाधिकारको उदारतासे स्वीकार न करना और केवल वैयक्तिक दृष्टि रख कर अंधा होकर धन बटोरते चलेजाना) ही पैशाचिकता है । यही कारण है कि मानवताके प्रेमी लोग धनोपासक नहीं होते । वे धनोपासनासे बचते हैं । धर्म केवल उन लोगोंकी वस्तु है जो धनके पीछे पडकर पिशाच नहीं बनजाते । मनुष्य के शब्दों में “अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मशानं विधीयते" धर्मज्ञान उन लोगों के लिये है जो अर्थ और कामको संसारका सर्व. श्रेष्ठ प्राप्य न मानकर अपने जीवनमें चारों पुरुषार्थोंका समविभाजन या सन्तुलन करके रखते हैं। जहां धनका बाहुल्य या केवल धनमात्रकी सेवा होती देखोगे, वहीं भर्जन तथा उसके व्ययकी नीतिनिर्धारणके समय काम, क्रोध, ग्ल, कपट, अनृत, माया, जिह्म भादि दोषों का व्यवहारमें आना अनिवार्य पाओगे। ऐश्वर्य अधिक संग्रहित होनेसे लोभ, क्रोध, मद, अभिमान और मोहका उत्पन्न होना अनिवार्य है। विभवके धर्मनिरपेक्ष होनेपर परिवार के प्रत्येक प्राणीमें इन दोषोंकी उत्पत्ति अनिवार्य है। "श्रिया ह्यभीक्षणं संवालो दर्पयन्मोहयेदापि " धनका निरन्तर सहवास मनुष्यमें दर्प और मोह पैदा किये बिना नहीं मानता । अनुभवी वृद्ध कह गये हैं अनाढ्या मानुषे वित्त आढ्या वेदपु य द्विजाः । नाहत्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम् । नानपेक्ष्य सतां मार्ग प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ मनुष्य दूसरोंके उचित अधिकारों पर ममघाती प्रहार किये बिना, समनुष्योचित धोर कर्म किये बिना, तथा भद्र पुरुषों के मार्गकी उपेक्षा किये बिना अधिक सम्पत्तिमान नहीं बन सकता । समाजहीनता धनियोंका अनि. पार्य स्वभाव होता है । वे समाज के सहयोगसे होनेवाले कामों को धन बल से करके समाजहीन होकर रहते हैं। समाजकल्याणके प्रति समाजसेवक लोग अपनी शक्तियों को समाजसेवामें सौपे रहनेके कारण अनिवार्य रूपसे मधन या अल्पधन होते हैं। उनके व्यक्तिगत धनभंडारके रिक्त रहनेपर भी उनका
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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