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________________ २९८ चाणक्यसूत्राणि चाहिये । यों भी कह सकते हैं कि समाज तथा अपनेमें अभेद सम्बन्धका दर्शन करते रहकर समाजके अभ्युत्थानको सपना ही अभ्युत्थान मानना चाहिये । हमारे पास रक्खे हुए धनका जो यथार्थस्वामी था वह याचकका मिष लेकर हमारे सामने भा खडा हुमा, इसकी धरोहर इसे सौंपकर उऋण होजाना ही दानका यथार्थ स्वरूप है। पाठान्तर--- अर्थानुरूपं दानम् । दान अपनी अर्थशक्तिके अनुरूप होना चाहिये। (वेश कैसा हो ? ) वयोऽनुरूपो वेशः ।। ३३४ ।। वेश अवस्थाके अनुरूप होना चाहिये। विवरण- परिणतवयस्क ( बालिग ) लोगोंके ऊपर यह सामाजिक उत्तरदायित्व स्वभावसे समर्पित है कि वे पूरे ज्ञानी अनुभवसे समृद्ध मितव्ययी तथा शिष्टाचारी हों तथा वे जो वेश धारण करें वह परिष्कृत रुचिको सुरक्षित रखनेवाला तथा समाजहितकारी मानवधमके अनुरूप हो। उनका यह कर्तव्य है कि सामाजिक कल्याणकारी रुचिविहित वेश न पहने तथा समाजको विपथगामी परानुकरणप्रिय तथा दुर्बल हृदय न बनने दें। सत्यकी उपेक्षा करके व्यक्तित्दका अनुकरण करना मनुप्यका विवेकहीन हृदौर्बल्य है। विवेक सत्य का ही अभ्रान्त अनुकरण कराता है, ग्यक्ति. स्वका नहीं। वयस्क लोगोंको पूर्ण ज्ञानी तथा समाजके स्तम्भ बनानेका उद्देश रखनेवाले विवकी सदस्यों का यह गंभीर उत्तरदायित्व है कि वे भाजके भारतीय राष्ट्र में फैली हुई विदेशी वेषानुकरणकी दूषित मनोवृत्तिको दृढतासे रोकें तथा अपने व्यवहारके द्वारा उनमें समाजकी कुरुचिके विरुद्ध खडे होनेका सरसाइस पैदा करके समाजको दृढचरित्रवाला बनायें । (भृत्य कैसा हो ? स्वाम्यनुकूलो मृत्यः ।। ३३५॥ भृत्यको स्वामीक अनुकूल आचरण करनेवाला होना चाहिये।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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