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________________ अपने प्रभावक्षेत्रमें ही मनुष्यकी पूजा धर्म है । जो मानव अपने हृदय में सत्यको अपने हृसिंहासनपर अभिषिक्त करदेता है, उसका स्वभाव अपनी बाह्य परिस्थितिको भी सत्यका रक्षक तथा असत्यका दलन करनेवाली बनाकर छोडता है। संसारका लोकमत इस बाा परिस्थितिपर उसीका अधिकार स्वीकार करता है जो सत्यकी मनुकूलता करता तथा असत्यके विरुद्ध अपने ज्ञानखड्गको तेजस्वी बनाये रखता है । राज्यसंस्थाके संचालक लोग सिंहासनारूढ रहने के योग्य तब ही रह सकते हैं जब वे अपने हृदय में असत्यको पराजित करके सत्यका संरक्षण करनेवाले विश्वसम्राट् बनचुके हों। सत्य ही समाजकी मनुष्यताका संरक्षक है । समाजके हृदयमें समाजकी मनुष्यताके संरक्षक सत्यरूपी सम्राटका राजसिंहासन स्वभावसे विद्यमान है । यह बाह्य राजसिंहासन समाज के हृदयस्थ सत्यसम्राटके राजसिंहासनका ही बाह्य प्रतीक है। दैवयोगसे इस बाह्य राज्यसिंहासनके शून्य हो जानेपर इसे पूर्ण करनेकी योग्यता उसी ग्यक्ति में होती है जो अपने हृदयसिंहासन पर सत्यको अभिषिक्त करचुका होता है । सुसंगठित मनुष्यताका संरक्षक मानवसमाज ही सत्यानुरागी राजाका अनुकूल क्षेत्र है। जब कभी ऐसा राजा उस समाजपर अपने राज्याधिकारके सदुपयोग करनेका सामर्थ्य लेकर इस बाह्य सिंहासनपर आरूढ होता है तब से राजसम्मान स्वभावसे मिल जाता है। सुसंगठित मानवसमाज ही राष्ट्रसेवक राजाका उपयुक्त स्थान है । मनुष्य. ताहीन असंगठित मानवसमाजका राजसिंहासन मनुष्यताहीन असुरोंको पापी लीलाओंसे कलंकित रहता है । वह कभी श्रेष्ठ लोगोंके हाथों में नहीं जा सकता । उस सिंहासनपर असुरोंके भनुमोदनसे ही कोई बैठपाता तथा जो कोई बैठता है वह भी असुरोंके हाथोंकी कठपुतली असुर ही होता है। वह बासुरीलीलाको ही पूरा करनेवाला नरपशु असुरों के हाथोंकी कठपुतली बनकर राजसिंहासनारूढ होकर अपनी राज्यलिप्साके सुखस्वप्नको भंग न होने देने के लिये अपनी कर्तव्यहीनतासे समाजलुण्ठन, नारीहरण, नरहस्या,
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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