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________________ २७२ चाणक्यसूत्राणि उसे रणोत्साह रहा था वही हमारे हाथोंमें आजानेपर हमारे शत्रुदमनका साधन बनकर सत्यका संरक्षक होनेसे सत्य ही बनजायगा । शत्रोरपि सद्गुणो ग्राह्यः । पाठान्तर विषादप्यमृतं ग्राह्यम् ॥ ३०७ ॥ विषसे भो अमृत ग्रहण करलेना चाहिये । विवरण- जब विष अमृतका काम देने लगे तब उसे विष न मानकर अमृतरूपमें स्वीकार करना चाहिये । विष अपने प्रयोक्ता के कौशल से विष न रहकर अमरत्वदान करनेवाला अमृत बन जाता है। शत्रुताचरण करनेवाले लोग हमारे लिये विषके समान भयजनक होते हैं इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु शत्रुताचरणको भी अपने लिये हितकारी बनालेनेका एक विज्ञजनप्रसिद्ध निराला दृष्टिकोण है । शत्रुताचरणोंसे मनुष्यकी हानि हो हानि नहीं होती उनसे कुछ अकल्पित लाभ भी होते हैं । शत्रुताचरण करनेवालोंके शत्रुताचरणका भी अपने अभ्युत्थान, गौरव, दृढता, सतर्कता, व्यवहारकुशलता, लोकपरिचय, सत्यनिष्ठा आदिमें सदुपयोग किया जा सकता है । हमें आत्मरक्षा के लिये उनके साथ जिस समय जो बर्ताव करना उचित हो उसे इसी ढंग से किया जाना चाहिये, जिससे उनकी शत्रुता हमारे लिये नाशक न रहकर रक्षक बनजाय । जैसे वैद्यके हाथों रोगीको औषध रूपमें दिया हुआ विष मारक न होकर रोगके विषाक्त बीजका नाशक होजाता है, इसीप्रकार यदि हम शत्रुके शत्रुतापूर्ण आक्रमणको हमें आक्रणसका लक्ष्य बनवानेवाली निर्बलताको हटाकर हमें शक्तिमान् विरोद्धा बना देनेवाली उत्साहवर्धक उत्तेजक महौषच मानकर दुगने उत्साहसे शत्रुदमनकारिणी मृतसंजीवनी के रूपमें प्रयोग में लायें तो हम विपको भी अमृत बनानेकी कला के पारंगत होजांय । विजिगीषु मनुष्यको शत्रुके शत्रुताचरणसे भयभीत न होकर, उसे पीठ न दिखाकर, उसका सहर्ष स्वागत करके उसे पराभूत करने के लिये अपने ही हृदय में सुवर्मावृत शक्तिकी खानको जगा लेना चाहिये । वीरोंका अनुभव है कि शत्रुकी शत्रुता हमें वीरतारूपी अमृतास्वादन करानेवाली होती हैं । शत्रुका शत्रुताचरण ही प्रयोगकौशल से वीरके लिये वीरतारूपी अमृत बनसकता है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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