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________________ शास्त्रकी उपकारिता २६५ अभ्युत्थान (विपदद्धार )को अपना ही अभ्युत्थान मानकर उसकी सेवामें मात्मसमर्पण करदेते तथा इसी समर्पणमें अपने जीवनकी परम कृतकृत्यता अनुभव करते हैं । ऐसे लोग सत्यार्थी विपन्न के विपद्वारणमें प्राप्त होनेवाले अपने कष्टोंको नगण्य बनाकर पर-हित-साधनमें सत्यकी सेवाका आनन्द लेते हैं । ऐसे लोग सत्य को ही अपने स्वजन के रूप में पाकर सत्यनिष्ठ व्यक्तिमात्रमें भास्मानुभूति करके उसके सुखदुःख में स्वभावसे साझी हो जाते हैं। एक सत्पुरुषाः परार्थवटकाः स्वार्थ परित्यज्य ये, मध्यस्थाः परकीय कार्यकुशलाः स्वार्थाविरोधन य। तेऽ मी मानुपराक्षसाः परहितं यहन्यते स्वार्थतः, ये तु नन्त निरर्थक परहितं ते के न जानीमह ॥ भतृहरिः संसार में चार प्रकार मनुष्य होते है --- एक व सरपुरुष हैं जो अपने स्वार्थकी उपेक्षा करके दूसरे सत्पुरुषों के काम आते हैं। दूसरे माध्यम पुरुष हैं जो अपने स्वार्थीको हानि न पहुंचाकर यथासंभव दूसरे सत्पुरुषक भी काम माने हैं । तीसरे व ऋर राक्षस हैं जो अपने स्वार्थ के लिए दूर गोंके स्वार्थका गला घोंट देते हैं। चाथ ये लोग हैं जो विना किसी कारण परहितको हानि पहुंचाते हैं । इन चौथ लोगोंको क्या नाम दिया जाय यह समझने में हम असमर्थ हैं। ( शास्त्रकी उपकारिता) हान्द्रयाणां प्रशमं शास्त्रम् ॥ ३०० ॥ इन्द्रियोंको शान्त रखनवाली शक्ति ही 'शास्त्र' है। विवरण- मनुष्य के मन में विषयभोगोंके प्रति लम्पटताको रोकने तथा टोकनेवाली जो भान्तरिक सनातन प्रवृत्ति है, वही मनुष्यका ईशरचित शाम्न मर्थात् हितानुशासनकारी देवी ग्रन्थ है। मानवजीवन से इन्द्रियोंका विजित होकर रहना ही मानवमनकी सची शान्तिका स्वरूप है। मानव तो विजेता हो तथा इन्द्रियां विजित हो इसी में मानवजीवनकी शान्ति
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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