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________________ चाणक्यसूत्राणि पुस्तकान्तरमें इससे प्रथम यह स्वतंत्र सूत्र उपलब्ध है। सा श्रीर्वोऽव्यात् ॥ वह परमसम्पत्तिदात्री ऐश्वर्यकी अधिष्ठात्री देवता राज्यश्री आप राज्याधिकारियोको सुमति देकर रक्षा करे। विवरण- राज्यश्री माप लोगोंके पास भाकर मापको श्रीमदमत्त न बनाकर, समाजसेवाके सर्वोत्तम क्षेत्र राज्यसंस्थाका सुचारुरूपसे संचालन करनेकी सुमति प्रदान करे । भाप लोग राज्यको अपने राष्ट्रकी पवित्र धरोहर मानकर इसे राष्ट्रसेवाका तपोवन बनाकर रखें । (धर्मका मूल) धर्मस्य मलमर्थः ॥ २॥ धर्मका मूल अर्थ है। विवरण-धर्म अर्थात् नीतिमत्ताको सुरक्षित रखने में राज्यश्री ( अर्थात् सुदृढ सुपरीक्षित सुचिन्तित राज्यव्यवस्था ) का महत्वपूर्ण स्थान है। जगत्को धारण करने ( जगत्को ऐहिक सभ्युदय तथा मानसिक उत्कर्ष देने) वाली नीतिको राष्ट्र में सुरक्षित रखने में अर्थ अर्थात् राज्यश्री ही मुख्य कारण होती है । राजकोषमें दरिद्रता आ जाने पर प्रजामें अनीतिकी बाढ मा जाती है। क्योंकि तब राज्य के पास अनीति रोकनेवाला साधन नहीं होता। राज्यसंस्था जितनी ही संपच और तेजस्वी होती है, प्रजा उतनी ही नीतिपरायण रहती है। राजकोषमें दरिद्रता मा जानेपर राष्ट्र-व्यवस्था ग्रीष्मकालीन कुनदियोंके समान लुप्त हो जाती है। ( अर्थका मूल ) अर्थस्य मूलं राज्यम् ।। ३॥ राज्य ( राज्यकी स्थिरता ) ही अर्थ (धन-धान्यादि संपत्ति या राज्यैश्वर्य) का मूल (प्रधान कारण ) होता है । विवरण- राज्यकी स्थिरता ही ऐश्वर्यको स्थिर रखनेवाली वस्तु है । ऐश्वर्यहीन राज्य परस्पर व्याहत भव्यावहारिक कल्पना है। राज्य तो हो पर
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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