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________________ चाणक्यसूत्राणि । - - ( सुखका मूल ) सुखस्य मूलं धर्मः ॥१॥ धर्म ( नोति या मानवोचित कर्तव्यका पालन ) सुखका विवरण- जगत् ( समाज का धारण या पालन करनेवाली नीतिमत्ता या कर्तव्यपालन ही मनुष्यका धर्म है। धर्म ( नीति ) ने ही समस्त जगत्को धारण कर रखा है। नहीं तो वह कभीका लड-झगडकर नष्ट हो गया होता। अधर्म आपातहष्टिसे सुखका मूल दीखनेपर भी दुःखका मूल है। धर्मपालनसे दुःखदायी पापकी संभावनायें नष्ट हो जाती हैं। मानसिक अभ्युस्थान और ऐहिक मभ्युदय दोनोंको समान रूपसे साथ-साथ सिद्ध करनेवाली नीति "धर्म" कहाती है । इस लिये जो लोग राज्याधिकार लेना और उससे सुख अर्थात् दोनों प्रकारका अभ्युदय पाना चाहें वे सावधान हो जायें और उससे भी पहले धर्म ( नीतिमसा ) को अपनायें। नीतिका अनुसरण किये बिना मनुष्यको मानसिक अभ्युत्थानमूलक सच्चा सुख प्राप्त नहीं हो सकता। मानसिक अभ्युत्थानमूलक सुख ही सुख है। मानसिक पतनसे मिलनेवाला सुख सुख न होकर सुखभ्रम या अनन्त दुःख जाल
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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