SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० चाणक्यसूत्राणि अनिवार्य रूपसे प्रकट करदेती है । इसलिये मनुष्य अपने कर्ममेंसे सत्य तथा धर्मकी हानि न होनेका पूरा ध्यान रखे । पाठान्तर- उपस्थितविनाशः प्रकृत्याकारण कार्यण लक्ष्यते। उपस्थित पदार्थोका भावी या वर्तमान विनाश पदार्थों के व्यापारों, आकारों तथा परिणामोंको देखकर समझमें जाता है। ( विनाशके चिन्ह ) आत्मविनाशं सूचयत्यधर्मबुद्धिः ॥ २४२ ।। विनाशोन्मुख मानवकी सत्यद्वेषिणी अधर्मवुद्धि ( अधार्मिक कार्योमें प्रवृत्ति ) उसके आत्मघातकी सूचना देती है। विवरण- अपने सत्यस्वरूपको त्याग देना ही उनका मारमविनाश या आत्मघात है । साधर्मबुद्धिवाले मानवका भाचरण कह देता है कि देखलो लोगो में नष्ट होने जारहा हूँ। अधर्मेणैधते राजन् ततो भद्राणि पश्यति । ततः सपत्नान् जयति समूलं च विनश्यति ॥ ( पिशुनको गुप्त बात न बताओ) । पिशुनवादिनो रहस्यम् ॥ २४३ ।। इस सूत्रमें प्रमादसे ' न ' छूट गया है । इसका अर्थ इसके पाठान्तरमें देखना चाहिये। पाठान्तर- नास्ति पिशुनवादिनो रहस्यम् । पिशुनवादीको बतायी गुप्त बात गुप्त नहीं रह सकती। अथवा- परनिन्दक के पास रहस्य नामकी कोई वस्तु नहीं होती। परदोषाविष्कारमें लगे रहना परनिन्दकका स्वभाव होता है । वह अपने इस स्वभावसे रहस्य-रक्षाकी कला भूलजाता है । वह सूंघ-सूधकर माखेट हूँढनेवाले कुत्तोंके समान परदोष ढूंढता रहता है। उसके पास गोपनीयता नामकी कोई बात नहीं रहती । ऐसोंसे गोपनीय बात न कहनी चाहिये।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy